Rag Darbari
Page 57
‘‘यह सुनते ही प्रोफ़ेसर ने मुझे ग़ौर से देखा और बोले, ‘ठीक है। आपको रिसर्च किये बिना ही मालूम हो गया होगा। पर बताइए तो श्रीमन् ! आपने विमान का यह अर्थ कहाँ से ढूँढ़ा ?’
‘‘रंगनाथ बाबू, लौंडहाई की बात। मैंने भी एक लैक्चर फटकार दिया। संस्कृत के दस ग्रन्थों के नाम उन्हें ताबड़तोड़ सुना दिए। ‘मेघदूत’–जैसी चालू किताब का भी हवाला दे मारा और दोबारा कहा कि विमान का यह अर्थ तो सभी को मालूम है, ताज्जुब है कि उसके पीछे आप लोगों को इतनी मेहनत करनी पड़ी।
‘‘जानते हो रंगनाथ बाबू, इसका क्या नतीजा हुआ ?
‘‘नतीजा यह हुआ कि प्रोफ़ेसर बनर्जी मुझसे उखड़ गए। बोले, ‘आप बड़े विद्वान् जान पड़ते हैं। मैं तो एक अदना यूनिवर्सिटी का अदना प्रोफ़ेसर हूँ।’ मन में आया कि कहूँ कि मेरे बारे में आप ग़लत कह रहे हैं और अपने बारे में सही, पर उनका गुस्सा देखकर चुप रह गया। उन्होंने फिर कहा, ‘मैं तो हर बात के लिए रिसर्च करता हूँ। आपकी–जैसी योग्यता मुझमें कहाँ कि इन प्रश्नों का ज़बानी हल निकाल लूँ ? यही क्या कम है कि विमान के अर्थ के विषय में आप मुझसे सहमत हैं ! मेरा यही बड़ा सौभाग्य है। अब आप बैठ जाइए, आप–जैसे विद्वान् को मेरे दर्ज़े में खड़ा होना शोभा नहीं देता।’
‘‘तो यह हुआ रंगनाथ बाबू ! बनर्जी उखड़ा तो फिर उखड़ता ही चला गया। वह मेरी हर बात में खुचड़ निकालने लगा। आख़िर में उसने मेरी डिवीज़न बिगाड़ दी और ऐसा हिसाब कर दिया कि उसके रहते हुए मुझे वहाँ यूनिवर्सिटी में जगह न मिली।
‘‘उस साले को मैंने उखाड़ा न होता तो आज उसी की जगह होता।’’
प्रिंसिपल साहब यह क़िस्सा सुनाकर चुप हो गए। थोड़ी देर दोनों चुपचाप चलते रहे। बाद में प्रिंसिपल साहब ही बोले, ‘‘इसी तरह कई बार गच्चा खाया है। बाद में इस नतीजे पर पहुँचा कि सब ऐसे ही चलता है। चलने दो। सब चिड़ीमार हैं तो तुम्हीं साले तीसमारख़ाँ बनकर क्या उखाड़ लोगे ! और अब तो यह हाल है रंगनाथ बाबू, कि तुम कुछ कहो तो हाँ भैया, बहुत ठीक ! और वैद्यजी कुछ कहें तो हाँ महाराज, बहुत ठीक ! और रुप्पन बाबू कुछ कहें तो हाँ महाराज, बहुत ठीक ! पहलवान ! जो कहो, सब ठीक ही है।’’
रंगनाथ की हिम्मत न हुई कि वह प्रिंसिपल की बात काटे। बोला, ‘‘ठीक ही है प्रिंसिपल साहब !’’
अचानक प्रिंसिपल साहब जोश में आकर बोले, ‘‘ठीक तो है ही रंगनाथ बाबू ! मुझे चार–चार बहिनों की शादी करनी है। एक कौड़ी पल्ले नहीं है। अगर वैद्यजी कान पकड़कर कॉलिज से निकाल दें तो माँगे भीख तक न मिलेगी।
‘‘अब तुम्हीं बताओ कि मैं इन साले खन्ना-बन्ना को अपना बाप मानकर चलूँ कि वैद्यजी को... ?’’
इस वार्तालाप में प्रिंसिपल साहब के व्यक्तित्व का एक बड़ा ही मानवीय पहलू उभरकर सामने आ रहा था, पर उनकी बात अब उनके चिरपरिचित बाँगङूपन को ज़्यादा प्रकट करने लगी थी। अत: उसका जादू टूटने लगा। रंगनाथ पहले की तरह हल्का हो गया। बोला, ‘‘नहीं–नहीं, जो आप कर रहे हैं, ठीक ही कर रहे हैं। और जहाँ हैं, वहाँ भी ठीक ही हैं। क्या रखा है यूनिवर्सिटी का प्रोफ़ेसर होने में ? यहाँ आप किस वाइस–चांसलर से कम हैं।’’
प्रिंसिपल साहब इतनी देर बाद हँसे। कहने लगे, ‘‘ख़ैर, सो तो है ही। मैं तो अपने को वाइस–चांसलर से भी अच्छा समझता हूँ। वाइस–चांसलर के लिए भी ज़िन्दगी नरक है। सवेरे से ही अपनी मोटर लेकर हर ऐक्ज़ीक्यूटिव वाले को सलाम लगाता है। कभी चांसलर की हाज़िरी, कभी मिनिस्टर की, कभी सेक्रेटरी की। गवर्नर साल में कम–से–कम चार बार डाँटता है। दिन–रात काँय–काँय, चाँय–चाँय। लड़के माँ–बहिन की गाली देते हुए सामने से जुलूस लेकर निकल जाते हैं। हमेशा पिटने का अंदेशा। पुलिस को फ़ोन करते हैं तो कप्तान हँसता है। कहता है कि देखो, ये वाइस–चांसलर हैं। साल में लड़कों पर दस–बीस बार लाठी चलवाए बिना इन्हें चैन ही नहीं पड़ता। तो ये हाल हैं, बाबू रंगनाथ !’’
खँखारकर वे दोबारा बोले, ‘‘अभी प्रिंसिपली में यह मुसीबत नहीं है और जहाँ वैद्यजी मैनेजर हों, वहाँ तो समझ लो कि प्रिंसिपल पूरा बबर शेर है। हमें किसी की खुशामद से मतलब नहीं। वैद्यजी का पल्ला पकड़े हैं और सबसे जूतों से बात करते हैं। क्या खयाल है, �
��ाबू रंगनाथ ?’’
‘‘बिलकुल ठीक कहते हैं आप।’’
‘‘और सच पूछो तो मुझे यूनिवर्सिटी में लैक्चरार न होने का भी कोई ग़म नहीं है। वहाँ तो और भी नरक है। पूरा कुम्भीपाक ! दिन–रात चापलूसी। कोई सरकारी बोर्ड दस रुपल्ली की ग्राण्ट देता है और फिर कान पकड़कर जैसी चाहे वैसी थीसिस लिखा लेता है। जिसे देखो, कोई–न–कोई रिसर्च–प्रोजेक्ट हथियाये है। कहते हैं कि रिसर्च कर रहे हैं; पर रिसर्च भी क्या, जिसका खाते हैं उसी का गाते हैं। और कहलाते क्या हैं। देखो, देखो, कौन–सा शब्द है–हाँ-हाँ, याद आया–कहलाते हैं, बुद्धिजीवी। तो हालत यह है कि हैं तो बुद्धिजीवी, पर विलायत का एक चक्कर लगाने के लिए यह साबित करना पड़ जाय कि हम अपने बाप की औलाद नहीं हैं, तो साबित कर देंगे। चौराहे पर दस जूते मार लो, पर एक बार अमरीका भेज दो–ये हैं बुद्धिजीवी !’’
उन्होंने अपनी मातृभाषा की एक दूसरी कहावत कही, ‘‘गू खाय तो हाथी का खाय। हमारा तो बस यही कि वैद्यजी की खुशामद करा लो, पर हरएक के आगे सिर झुकाने को तैयार नहीं हैं। लैक्चरार होना अपने बूते की बात नहीं।’’
प्रिंसिपल साहब ने सिर हिलाकर लैक्चरार बनने से इनकार कर दिया और उनके चेहरे से लगा कि संसार के सभी विश्वविद्यालयों में शोक व्याप्त हो गया है।
‘‘बिलकुल ठीक कहते हैं आप।’’ रंगनाथ ने कहा।
प्रिंसिपल ने ग़ौर से रंगनाथ की ओर देखा और अचानक हल्के ढंग से हँसने लगे। धीरे–से बोले, ‘‘क्या मामला है बाबू रंगनाथ ! मेरी हर बात को आप ठीक ही कहते चले जा रहे हैं।’’
रंगनाथ ने कहा, ‘‘सोच रहा हूँ, मैं भी आपके तजुर्बे का फ़ायदा उठाऊँ। क्या रखा है किसी की बात काटने में ? जो कहते हैं, आप ठीक ही कहते हैं।’’
प्रिंसिपल साहब ठठाकर हँसे, ‘‘तो तुमने भी ठीक ही कहा था रंगनाथ बाबू ! जब मैंने तुम्हारे आगे पिकासो का नाम लिया, तो तुम्हें सचमुच ही ग़श आ गया होगा। मैं समझता हूँ।...
‘‘इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। ऐसी बातों का असर मशीन तक पर पड़ जाता है। तुम्हें एक घटना बताता हूँ :
‘‘एक हवाई जहाज़ इण्डिया से इंग्लैण्ड जा रहा था। हवाई जहाज़ में तम्बाकू का एक व्यापारी भी बैठा था। साले की सारी उम्र बीड़ी-सिगरेट के कारोबार में बीती थी। अचानक उसे क्या सूझा कि वह लिट्रेचर और फिलासफी की बात करने लगा। बस, हवाई जहाज़ के इंजन उसी वक़्त बन्द हो गए और वह एकदम से हज़ार फीट नीचे आ गया। तहलक़ा मच गया ! लोग समझे कि ऐक्सीडेण्ट हुआ, पर तब तक सबकुछ अपने–आप ठीक हो गया। इंजन फिर से काम करने लगे।...
‘‘हवाई जहाज़ के इंजीनियर ने जाँच–पड़ताल की, तो आप जानते हैं कि क्या पता चला ? मालूम हुआ कि तम्बाकू के व्यापारी ने कार्ल जैस्पर्स का नाम ले लिया था। उसी सदमे से हवाई जहाज़ के इंजन अचानक बन्द हो गए थे। उसके बाद सभी यात्रियों ने व्यापारी की ख़ुशामद की और कहा कि या तो चुप रहिए या सिर्फ़ तम्बाकू की बात कीजिए, नहीं तो ऐक्सीडेण्ट हो जाएगा।’’
रंगनाथ हँसने लगा, ‘‘आज आप बहुत मज़ेदार बातें कर रहे हैं।’’
प्रिंसिपल उदास होकर बोले, ‘‘आपके लिए मैं रोज़ ऐसी ही बातें कर सकता हूँ। पर आप हमें घास कहाँ डालते हैं ! आप तो इन दिनों खन्ना मास्टर की बातों में उलझे हुए हैं।’’
वे वापस लौट रहे थे। अँधेरा घिर आया था और हवा में ठण्डक थी। सड़क के किनारे एक जगह कुछ बनजारे पड़े थे। वे आग ताप रहे थे और किसी ऐसी बोली में, जो सफ़ेदपोशों की समझ में कभी भी नहीं आ सकती, आपस में बातचीत कर रहे थे। प्रिंसिपल साहब जिस तरह जाते वक़्त गाय–भैंसों के झुण्ड को नि:स्पृहतापूर्वक पार कर गए थे, लौटते वक़्त इस बस्ती को भी पार कर गए। रंगनाथ ने पीछे मुड़कर सिर्फ़ एक बार देखा और सिर्फ़ इतना कहा, ‘‘जाड़ा बड़े ज़ोरों पर है।’’
प्रिंसिपल साहब मौसम पर कुछ कहने के लिए तैयार न थे। वे अपनी पुरानी बात पर अडिग थे। कहते रहे, ‘‘तुम लोग अभी आदमी नहीं पहचानते हो। रुप्पन, मैंने सुना है, खन्ना के चरके में आ गए हैं। पर तुमको सोचना चाहिए बाबू रंगनाथ, कि ये खन्ना मास्टर आख़िर चीज़ क्या हैं।
‘‘खन्ना मास्टर बड़ी चलती कौड़ी हैं। देखो, उस दिन कॉलिज में मारपीट की नौबत कर दी न ? उसका तो कुछ
गया नहीं, यहाँ कॉलिज की इज़्ज़त मिट गई।’’
रंगनाथ बोला, ‘‘पर मैंने तो सुना है, झगड़ा दोनों तरफ़ से हुआ था।’’
प्रिंसिपल साहब ने साधुओं की तरह कहा, ‘‘तुम्हारे सुनने से क्या होता है बाबू रंगनाथ ! अब तो मामला इजलास में है। मजिस्ट्रेट जैसा समझेगा, फ़ैसला दे देगा।’’
‘‘पर बात बड़ी ख़राब है।’’
‘‘ख़राब ? चुल्लू–भर पानी में डूब मरने की बात है, रंगनाथ बाबू ! पर यह खन्ना मास्टर इतने हयादार भी तो नहीं हैं। हमीं को इनके गले में पत्थर बाँधना पड़ेगा, तब डूबेंगे।’’
वे प्रचार–विभागों की–सी नि:स्पृहता से–कोई सुने या न सुने, हमें तो कहना ही है– कहते रहे, ‘‘पुलिस ने ज़बरदस्ती दोनों पक्षों पर 107 का मुक़दमा चला दिया है। इसे कहते हैं पुलिस का हरामीपन। बदमाशी खन्ना ने की, मारपीट पर उसके साथी आमादा हुए और चालान हुआ तो उन लोगों का भी और हमारा भी। यह है ‘अन्धेर नगरी चौपट राजा’।...