Rag Darbari
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जो भी हो, ऊपर से प्रिंसिपल साहब अपने बाप के लड़के होने का वाक़या बड़े अहंकार के साथ सुनाया करते थे। प्रिंसिपल साहब ज़िद्दी तबीयत के आदमी थे और जब वे कोई काम तर्कहीन ढंग से करके दिखाते तो वे एक बार छाती ठोंककर ज़रूर कहते कि क्या समझते हैं आप, मैं उन पेशकार साहब का लड़का हूँ।
अपनी बात को ज़िद के साथ पकड़ना–प्रिंसिपल साहब जानते थे कि यह खूबी उन्होंने अपने पिता से पायी है, पर उन्हें यह पता न था कि अवधी का प्रयोग भी वे अपने पिता की ही परम्परा में करते हैं और जब कभी वे गुस्से में होते हैं या जोश में, अवधी उनके मुँह से ताबड़तोड़ और अनायास निकलने लगती है, जैसे बहुत–से हिन्दुस्तानियों के मुँह से अंग्रेज़ी निकलती है।
इस समय प्रिंसिपल साहब वैद्यजी के सामने कॉलिज की समस्याओं पर विचार कर रहे थे, अर्थात् खन्ना मास्टर को गालियाँ दे रहे थे। उसके एक दिन पहले दफ़ा 107 के मुक़दमे में जब वे इजलास पर पहुँचे तो उन्हें मुक़दमे में एक नया मोड़ दिखायी दिया था, क्योंकि खन्ना मास्टर के वकील ने अपनी बहस में कुछ इस तरह की बातें कही थीं :
‘‘श्रीमन्, यह मुक़दमा ‘हैव्ज़’ और ‘हैव नाट्स’ का है। एक तरफ़ कॉलिज के मैनेजर हैं जो वैद्य महाराज कहलाते हैं और वास्तव में वे वैद्य कम हैं, महाराज ज़्यादा हैं। उनके पीछे उनके सैकड़ों गुर्गे और गुण्डे हैं। उन्हीं में इस कॉलिज के प्रिंसिपल और आठ–दस मास्टर भी हैं जो या तो उनके रिश्तेदार हैं या रिश्तेदारों के रिश्तेदार हैं। इन सबकी माली हालत अच्छी है और अगर अच्छी न हो तो कॉलिज के फण्ड से वह पूरी कर दी जाती है। श्रीमन्, दूसरी ओर खन्ना और उनके–जैसे आठ–दस मास्टर हैं जो ग़रीब हैं और जिन्हें इन लोगों का कुचक्र बराबर दमित करता रहता है। आपसी संघर्ष का मुख्यत: यही कारण है।’’
अदालत ने अंग्रेज़ी में कहा था, ‘‘यानी झगड़ा रोटियों और मछलियों को लेकर है।’’
वकील ने अपनी बात को काटते, दुरुस्त करते, घटाते, बढ़ाते और फिर उसी बात को उखाड़ते–पछाड़ते और उससे कतराते हुए कहा था, ‘‘नहीं, श्रीमन्, मेरा यह मतलब नहीं है। मैं तो सिर्फ यह कह रहा था कि झगड़ा सिद्धान्त का है।’’
‘‘आपने यह तो नहीं कहा था।’’
‘‘कहनेवाला था श्रीमन्,’’ वकील ने अपनी बात चालू रखी, ‘‘खन्ना और उनके विचारवाले लोग यह बरदाश्त नहीं कर पा रहे हैं कि जनता के रुपयों का इस प्रकार दुरुपयोग हो। श्रीमन्, ये सब नवयुवक हैं और बेईमानी और मक्कारी से समझौता करने की अभी इन्हें आदत नहीं पड़ पायी है...।’’
अदालत ने मुस्कराकर कहा, ‘‘उस हालत में इन्हें मुक़दमे और जेल से न घबराना चाहिए।’’
वकील ने इस सलाह पर ध्यान दिए बिना अपना व्याख्यान जारी रखा था, ‘‘इसलिए ये कॉलिज के मामलों में होनेवाली गड़बड़ी के बारे में अपनी आवाज़ संवैधानिक ढंग से उठाते हैं। श्रीमन्, अभी कुछ दिन हुए उस कॉलिज में मैनेजर का चुनाव हुआ था, और उसमें पिस्तौल के ज़ोर से वैद्य महाराज फिर से मैनेजर चुने गए थे। इसकी शिकायत डिप्टी पेज डायरेक्टर अॉफ एजुकेशन के यहाँ हुई है। खन्ना आदि ने इसका विरोध किया था। यही नहीं, वे डिप्टी डायरेक्टर से मिले भी थे और पूरे मसले की अब जल्दी ही जाँच होनेवाली है। इसी तरह, वैद्य महाराज जिस कोअॉपरेटिव यूनियन के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं, उसमें ग़बन हुआ था। वह मामला छ: महीने से दबा पड़ा था और खन्ना तथा उनके साथियों ने रजिस्ट्रार, कोअॉपरेटिव सोसाइटी से मिलकर उसकी भी जाँच शुरू करायी है। ज़रूरत हो तो इन दोनों अफ़सरों को मैं गवाही में पेश कर दूँगा।
‘‘श्रीमन्, इन जाँचों के दौरान खन्ना और उनके साथियों को दबाने के लिए, उन्हें मजबूर करके उनका मुँह बन्द करने के लिए ही मुक़दमा चलाया गया है। यह मुक़दमा भी एक तरह की जालसाज़ी है। श्रीमन्...।’’
प्रिंसिपल के वकील ने इजलास में क्या कहा था, यह बात उतने महत्त्व की नहीं है। पर उस दिन गाँव वापस आकर प्रिंसिपल साहब ने वैद्यजी को बताया था कि कॉलिज के चुनाव और कोअॉपरेटिव के ग़बन–दोनों ही मसलों की जाँच होनेवाली है।
वैद्यजी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आयी थी, सिर्फ़ वे धर्म की ओर झुक गए और ‘हरि–इच्छा’ कहकर
चुप हो गए थे।
पर प्रिंसिपल साहब इस समय निश्चित योजना बनाकर आए थे और जोश में थे, अत: अवधी में कह रहे थे :
‘‘महराज, हमारि तौ यहै राय है कि सारे खन्ना के हाथ–पाँय टुरवाय कै कौनौ नारा माँ डारि दीन जाय, यहु न बनै तौ सारे का कान पकरि कै कॉलिज ते बाहेर निकारि दियै। मारै चूतर पर चारि लातै औरु...’’
पर वैद्यजी पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे हिंसा की बातें अच्छी नहीं लगतीं।’’ कहकर उन्होंने डकार ली और प्रिंसिपल इन्तज़ार करने लगे कि इसके साथ ही वे फिर ‘हरि–इच्छा’ वाली बात कहेंगे, पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा और शायद अहिंसा, पिस्तौल का प्रदर्शन, ग़बन, देश का कल्याण आदि की समस्याओं ने उन्हें चुपचाप उलझा दिया।
शराबख़ाने से लगभग सौ गज़ आगे एक पीपल का पेड़ था जिस पर एक भूत रहता था। भूत काफ़ी पुराना था और आज़ादी मिलने, जम़ींदारी टूटने, गाँव–सभा क़ायम होने, कॉलिज खुलने–जैसी सैकड़ों घटनाओं के बावजूद मरा न था। जिन्हें उसके वहाँ होने की ख़बर थी, वे सूरज डूबने के बाद उधर से नहीं निकलते थे। अगर कभी निकल जाते तो उन्हें तरह–तरह की आवाज़ें सुनने में आतीं। उन आवाज़ों से आदमी को बाद में बुख़ार आने लगता था। बुख़ार से आदमी ज़्यादातर मर जाता था। अगर नहीं मरता था तो लोग कहते थे कि पण्डित राधेलाल भूत बहुत अच्छा झाड़ते हैं।
एक शाम एक साइकिल–सवार पीपल के नीचे से निकला। वह पेड़ सड़क के किनारे था, इसलिए उसका पीपल के नीचे से निकलना लाज़मी था। साइकिल–सवार भूत के बारे में जानता था और अगर उसके आगे एक ट्रक धीमी रफ़्तार में न जा रहा होता तो वह शायद इस समय उधर से निकलने की हिम्मत न करता। वह ट्रक के पीछे की लाल बत्ती का सहारा लिये हुए पच्छिम में उजाले की बची–खुची लकीरों को दिन की निशानी मानकर सट्–से पीपल के नीचे से निकल गया।
इतना करके उसने इत्मीनान की साँस ली। फागुन की हवा उसके चेहरे से टकरायी और उसने उस हवा का जी भरकर आनन्द लिया। उसने ज़रा और जोश में आकर दो–तीन बार ‘कटिलों–कटिलों’ कहकर तीतर की बोली किसी काल्पनिक जन–समुदाय के आगे सुनायी, फिर अमरसिंह राठौर की मशहूर नौटंकी से ‘‘निकल गया जैसे शेर शिकारी को मार’’ नामक गाना गुनगुनाना शुरू कर दिया। धीरे–धीरे गाने का वॉल्यूम अपने–आप बढ़ने लगा।
तभी वह चौंका। सड़क के बिलकुल किनारे उसे ‘गों–गों–गों’ की आवाज़ सुन पड़ी। यह इन्सान की आवाज़ नहीं थी। साइकिल–सवार बिना बताये ही समझ गया कि यह भूत की आवाज़ है। उसकी ऊपर की साँस ऊपर ही टँगी रही और नीचे की हवा नीचे से निकल गई। उसे लगा कि भूत ने बिना किसी सूचना के अपना हलक़ा बदल दिया है और पीपल के पेड़ से उतरकर वह शायद पाकड़ के पेड़ पर आ गया है।
‘गों–गों–गों’ की आवाज़ दोबारा हुई और इस बार कुछ और ज़ोर से। उसी के साथ कुछ आदमियों की दो तरह की आवाज़ें आईं। एक ज़ोर से हँसा, दूसरा बोला, ‘‘कहा था, बहुत न पियो, पर नहीं माने न ! और पी लो, बेटा !’’
एक और मर्दानी आवाज़ आयी जो गाने की थी। हँसी के साथ ही किसी ने हामिद डाकू नौटंकी का एक तराना छेड़ दिया था, ‘‘न कीजै शोरगुल चिकचिक, शीश सबको झुकाते हैं।’’
तभी गों–गों–गों वाली आवाज़ में कई आरोह–अवरोह पैदा हो गए। पहले तो किसी ने शुरुआती ढंग से कहा, ‘‘गों–गों’। उसके बाद शायद कुछ मौलिकता दिखाने के विचार से उसने गला फाड़कर पुकारा, ‘‘बचाओ !’’ अन्त में फिर वही ‘गों–गों–गों’। पर इस बार आवाज़ में बुलन्दी नहीं थी, रस्म–अदायगी–भर थी।
साथ ही, हामिद डाकूवाली नौटंकी गानेवाले ने संगीत का कार्यक्रम रोक दिया। फिर शायद उसी ने कहा, ‘‘समझाया था बेटा, बहुत न पियो। पर फोकट की दारू !’’ बाद में वही हँसी। वही हामिद डाकू का गाना।
साइकिल–सवार की अन्दरूनी हवा में जो उलट–फेर हुआ था, वह भूत को लेकर था। आदमी के बारे में वह बेझिझक था। इसलिए आदमियों की बातें सुनकर, किसी गड़बड़ी का अन्देशा सूँघकर, वह साइकिल से उतर पड़ा और ललकारकर बोला, ‘‘घबराना नहीं, पहलवान ! आ गए। ख़बरदार, हाथ मत लगाना !’’
पाकड़ के पेड़ के दूसरी ओर एक झाड़ी थी। उसके पीछे शाम के धुँधलके में पाँच–छ: आदमी चल–फिर रहे थे। कई तरह की आवा�
��़ें हो रही थीं :
‘‘गों–गों–गों !’’
‘‘बचाओ !’’
‘‘ज़्यादा न बहको बेटा ! कहा था, बहुत न पियो।’’
‘‘न कीजै शोर–गुल चिकचक, शीश सबको झुकाते हैं।’’
साइकिल–सवार चौकन्ना होकर इधर–उधर देख रहा था और किसी अज्ञात व्यक्ति को किसी अज्ञात ख़तरे से बचाने के लिए आवाज़ देने लगा था। तब तक एक आदमी झाड़ी के पीछे से निकला और चुस्त चाल से साइकिल–सवार के पास आकर खड़ा हो गया। उसके मुँह से ठर्रें की खुशबू आ रही थी। वह आदमी रोब से बोला, ‘‘क्या बात है जवान ? क्यों चिल्ला रहा है ? तुमको क्या तकलीफ़ है ?’’