Rag Darbari
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साइकिल–सवार ने झाड़ी की ओर इशारा किया। कहा, ‘‘उधर से कोई ‘बचाओ–बचाओ’ चिल्ला रहा है।’’
‘‘वो सब दारू पीकर अलमस्त पड़ा है। सब साला बहकना माँगता। पर तुम क्या करना माँगता ?’’
दो और साइकिल–सवार सड़क पर निकल रहे थे। इन लोगों को देखकर वे साइकिलें धीमी करके उतरने की तैयारी करने लगे। झाड़ी के पास की आवाज़ें अब और भी ऊँची हो गई थीं, पर उनके शब्द स्पष्ट नहीं थे। उस आदमी ने फ़ौजी स्टाइल में कहा, ‘‘तुम्हारे रुकने की दरकार नहीं। ये गँजहों का मामला है। सब साला दारू पीकर मस्त हो रहा है। अपने–अपने रास्ते फ़ालिन हो जाओ।’’
दोनों साइकिल–सवारों ने यह उपदेश सुनकर अपनी रफ़्तार बढ़ा दी। पहलेवाला साइकिल–सवार भी नाक सिकोड़ता हुआ आगे बढ़ गया। जाते–जाते सन्देश छोड़ता गया, ‘‘सब लुच्चे हैं। सारा इलाका गँधा गया इन शराबियों से।’’
फ़ैजी स्टाइलवाले आदमी ने जवाब में कहा, ‘‘तुम ठीक बोलता है जवान ! दारू पीना ठीक बात नहीं है।’’
अब सड़क वीरान थी। उस आदमी ने वहीं से कहा, ‘‘चलो लड़को, डबुल मार्च लगाओ। चलप् !’’
झाड़ी के पीछे शान्त स्वरों में वार्तालाप हो रहा था।
‘‘हाँ भर्फाई, अर्फब चर्फलो।’’
‘‘इस सर्फाले के मुँह में कर्फपड़ा र्खाेंर्फाेंस दें कि निर्फिकाल दें।’’
“ खोर्फाेसे रर्फहो।’’
लगभग पाँच आदमी झाड़ी के पास से निकलकर सड़क पर आए। उनमें से किसी का भी क़दम लड़खड़ा नहीं रहा था, सब चुप थे और सभी चाल से कुछ ऐसी तैयारी के साथ आगे बढ़ रहे थे गोया वह एक छापामार दस्ता हो जिसे चीनियों के हाथ से अपने सीमा–क्षोत्रों की हथियायी हुई ज़मीन वापस लेने का काम सौंपा गया हो। भूतवाले पीपल के पास तक आते–आते उन्होंने सड़क छोड़ दी। यह भूत का लिहाज भी हो सकता था और सामने से आनेवाली तेज़ रोशनी मारती हुई कार का भी। सड़क से नीचे उतरते ही वे एक खेत में पहुँच गए जिसके चारों ओर बबूल के काँटोंवाली टहनियाँ गड़ी हुई थीं। खेत में कोई फ़सल नहीं थी, सिर्फ़ ज़मीन की रक्षा के लिए काँटों का सहारा लिया गया था। एक आदमी ने गला चाँपकर चीख़ निकाली और कहा, ‘‘अर्फरे बर्फाप ! कर्फांटे।’’
दूसरे ने कहा, “ किर्फ़िस सर्फाले ने यर्फहाँ कर्फ़ांटे गर्फाड़े हैं ?’’
पहलेवाले आदमी ने कहा, ‘‘रर्फमचर्फन्ना ने।’’
‘‘कर्फब ?’’
‘‘तुर्फम्हारे जेर्फेल जर्फाने के बर्फाद।’’
‘‘तर्फभी ! अर्फब अर्फा गर्फया हूँ...खेर्फेत तो हर्फमारा है। यहाँ कर्फांटा क्या अर्फपने बर्फाप का सर्फमझकर गर्फाड़ा है ?’’
‘‘गुर्फुस्सा न होओ। तुर्फुम अर्फा गए। सर्फब चुर्रैट हो जर्फायगा।’’
‘‘ठिर्फीक है। पर्फर यह कर्फांटा आया कर्फहाँ से ? किर्फिस ने दिर्फिया.. ?’’
खेत से वह टुकड़ी चढ़कर सड़क पर दोबारा आ गई थी। शराबघर लगभग पचास गज रह गया था। एक आदमी ने सर्फरी बोली छोड़कर कहा, “रमचन्ना के अपना बबूल तो एक भी नहीं। यह किनके बबूल उजाड़कर लाया है ?’’
‘‘क्या पता, किसका बबूल है ?’’
‘‘न बताओ। मुझे खुद मालूम हो जाएगा।’’
‘‘हो जाएगा, तो पूछते क्यों हो।’’
‘‘पूछता तो इसलिए हूँ कि तुम्हारे रंग का भी पता लग जाए।’’
वह आदमी हँसने लगा। पूरे समाज से बोला, ‘‘जोगनाथ जेल से जिरह करना सीख आया है।’’
‘‘घबराओ नहीं भूतनी के, तुम्हें भी सिखा दूँगा।’’
वे लोग शराबघर में घुस गए। सिर्फ़ पाँच–सात लोग पहले से मौजूद थे। एक ने उत्साह से कहा, ‘‘जोगनाथ ! कब लौटे जेहल से ?’’
‘‘आज दोपहर बाद।’’
उसने अतिरिक्त उत्साह से पूछा, ‘‘कैसा रहा ?’’
‘‘बहुत अच्छा रहा।’’
‘‘कोई जान–पहचानवाला मिला ?’’
‘‘सभी जान–पहचानवाले हो गए।’’
‘‘वहाँ बिसेसरा भी होगा। मिला ?’’
‘‘नहीं, पर वहाँ सभी बिसेसर के बाप थे।’’
‘‘रामबाँस कूटना पड़ा कि नहीं ?’’
किसी ने एक कोने से भर्राया हुआ सवाल किया। जोगनाथ ने बिगड़कर कहा, ‘‘यह कौन बोल रहा है मुर्गी का... !’’
‘‘हमारे पाहुन हैं।’’
‘‘उनसे कह दो अपनी तुरही बन्द रखें। उसकी क़दर शिवपालगंज में नहीं है।’’
‘‘सुन लिया प
ाहुन ? ये जोगनाथ है। अभी–अभी जेल से आया है। कहता है कि अपनी तुरही बन्द रखो।’’
‘‘मुझसे भी सुन लो। पहले ही बताये देता हूँ। मैं अव्वल दर्ज़े का हरामी हूँ। चुप्पेचाप अपनी दारू पनिया–पनियाकर पिये जाओ और वहीं कोने में उल्टी किये जाओ। दोबारा रामबाँसवाली बात की तो रामबाँस ही दिखाऊँगा।’’
‘‘सुन लिया पाहुन ?’’
‘‘सुनेगा कौन ? यहाँ तो कोना खाली है।’’
‘‘अरे, कहाँ हैं पाहुन ? खिसक गए क्या ?’’
‘‘अरे, वाह रे पाहुन !’’
जोगनाथ ने दस रुपये का नोट निकालकर दुकानदार को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘सब लोगों को एक–एक चुग्गड़ दो। कोई बचने न पाए, बहुत दिन बाद अपनी भूमि में आए हैं।’’
‘‘बहुत पैसा लेकर आए हो।’’
‘‘सनिचरा प्रधान बन गया है, उसका हुकुम है, आज सब लोग मौज से पियें।’’
‘‘पर सनीचर के पास पैसा कहाँ ?’’
‘‘अब सनीचर सनीचर नहीं रहा, प्रधान है। समझ गए !’’
वे एक–एक चुग्गड़ लेकर बैठ गए। यह दुकान के बाहर का बरामदा था जिसे सींक की एक दीवार खड़ी करके सड़क से अलग कर दिया गया था। भीतर कोठरी में दुकान थी। एक लालटेन बरामदे में जल रही थी जिससे पीनेवाले को देखा जा सकता था। एक ढिबरी दुकान के अन्दर जल रही थी, जिससे पिलानेवाले को नहीं देखा जा सकता था। बरामदे में एक बैंच पड़ी थी, दो आदमी उसी पर बैठे थे। जोगनाथ भी वहीं बैठ गया। बाकी लोग नीचे एक टाट पर बैठे थे, कुछ नीचे कच्चे फ़र्श पर बैठे थे। साक़ी, सुराही, प्याला–जो कुछ था, सब इतने ही में था। देशी शराब की बदबू सड़क पर काफ़ी दूर तक फैली थी। जैसे योजनगन्धा की सुगन्ध-मात्र से राजा शान्तनु को उसके होने का दूर से पता लग गया था, वैसे ही गन्ध–मात्र से दूर–दूरवालों को पता लग जाता था कि यहाँ देसी शराब बिकती है। अपने यहाँ गन्ध ही देसी शराब का विज्ञापन है। इसीलिए अच्छे–खासे अख़बारों में विलायती शराब के विज्ञापन तो मिल जाते हैं, देसी शराब का ज़िक्र नहीं आता। उसके विज्ञापन की ज़रूरत नहीं है।
दो–तीन घूँट लेने के बाद जोगनाथ ने इधर–उधर देखा और कहा, ‘‘पानी मिला है।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘पानी ! शराब में पानी मिलाकर बेचा गया है।’’
‘‘मुझे भी लगता है।’’
‘‘मुझे भी।’’
‘‘मुझे भी। बहुत दिन से ऐसा लगता है। बल्कि अब तो पानी–मिली दारू असली दारू–जैसी ही जान पड़ती है।’’
दुकानदार अपनी जगह से उठकर जोगनाथ के पास आया। ठण्डी आवाज़ में बोला, ‘‘मौज से पिये जाओ। तुम्हारी हवा तो पहले चुग्गड़ में ही निकली जा रही है। पाव–आध पाव फोकट में पीना हो तो साफ़-साफ़ कहो, पिला दूँगा। पर पानी–वानी चिड़ीमार मिलाते हैं। यहाँ वैसी बात नहीं।’’
जोगनाथ पर इसका वाजिब असर पड़ा। जेब से दस और पाँच रुपये के कुछ नोट निकालकर बोला, ‘‘फोकट में पीना होगा तो पियूँगा ही। पर घबराओ नहीं, यह देखो ! कभी देखा है इतना ?’’
दुकानदार दुबला–पतला पर कैंडेदार आदमी था। अकड़ता हुआ वापस चला गया, बोला, ‘‘हमारे देखने के दिन लद गए। अब तुम्हारा देखना शुरू हुआ है, देखे जाओ।’’
दूसरा चुग्गड़ भर गया। एक ने पूछा, ‘‘अब क्या इरादा है जोगनाथ ?’’
‘‘रुपये की तंगी है। जोगनाथ ने इस तरह कहा कि किसी को इस बात पर यक़ीन न करना चाहिए, ‘‘अभी तो पहले दारोग़ाजी से दो–दो हाथ करने हैं। तबादला हो गया है तो क्या ! मैं छोड़नेवाला नहीं हूँ। यहाँ आने से पहले ही शहर में उन पर एक दावा ठोंक आया हूँ। दस पेशी में पलस्तर ढीला हो जाएगा।’’
‘‘कैसा दावा ?’’
‘‘दीवानी का। क्या तुम नहीं जानते हो ? मुझ पर चोरी का झूठा मुक़दमा चलवाया था। दो–तीन महीने मुझे हवालात में रहना पड़ा।’’
‘‘वैद्यजी ने ज़मानत नहीं करायी ?’’
‘‘वे तो करा देते, पर मैं ऐंठ गया। कहा, दारोग़ा के नाम पर यहीं रहूँगा। रहने का कोई किराया तो था नहीं।’’
‘‘फिर ?’’
‘‘फिर क्या ? मेरी बेइज़्ज़ती हुई, खेती का नुक़सान हुआ। एक खेत रमचन्ना ने दबा लिया। इस सब नुक़सान पर आठ हज़ार के हर्जाने का दावा ठोंका है। डिग्री हो गई तो दारोग़ाजी बिक जाएँगे।’’
‘‘पर कोर्ट-फ़ीस का क्या हुआ ? दीवानी में बड़ा ख़र्चा होगा।’’
‘‘सब भ�
�वान देगा।’’
‘‘अब देखो भाई जोगनाथ, बाँभन के घर पैदा होकर इधर–उधर की न हाँको। सच्ची–सच्ची बात करो।’’
‘‘हाँ भाई, हम भी कहते हैं, भगवान को बीच में न ठेलो। कोर्ट-फ़ीस कौन देगा ?’’
‘‘कह तो दिया–भगवान देगा ।’’
‘‘अब यह बिदक गया, नहीं बताएगा। न बताओ, आगे बढ़ो। तो मुक़दमा ठोंकना है कि ठोंक दिया ?’’
‘‘ठोंक दिया।’’
‘‘कब ठोंका ?’’
‘‘आज ठोंका।’’
झाड़ी के पीछे से एक आदमी लड़खड़ाता हुआ निकला और सड़क पर कराहते हुए चलने लगा। वह आत्म–दया, आक्रोश आदि कई साहित्यिक गुणों से पीड़ित था। शराबघर में उसकी जो बातें छनकर पहुँचीं, उनका यह मतलब निकाला गया कि अभी कुछ देर पहले भुतहा पीपल के आगे सड़क के किनारे रहज़नी हुई है और कुछ लोगों ने उसे लूट लिया है। वह थाने पर रिपोर्ट लिखाने जा रहा है और अब वह एक–एक को समझेगा।
जोगनाथ के पाँव के पास कच्चे फ़र्श पर एक आदमी मुस्तैदी से चुग्गड़ पर चुग्गड़ चढ़ा रहा था। वह बोला, ‘‘तुम्हारे गाँव में यह बड़ी ग़लत बात है पहलवान ! लोग–बाग लेफ़्ट–राइट करता हुआ दिन डूबते ही रहज़नी कर बैठता है। यह बिलकुल फ़िजूल का काम है। क्यों ज्वान ? क्या बोलता है ?’’