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Rag Darbari

Page 70

by Shrilal Shukla


  बद्री पहलवान कुछ देर अँधेरे में चुपचाप खड़े रहे। कुछ नहीं बोले। जो काम कोई भी पहलवान आसानी से नहीं कर सकता, वही करते रहे, यानी कुछ सोचते रहे।

  छोटे अब और भी सकपका गया। झिझकते–झिझकते बोला, ‘‘गुरू, किस सोच–विचार में पड़ गए ? सोचना काम चिड़ीमार का है। मुझे भी तो बताओ, क्या बात है ?’’

  बद्री ने धीरे–से कहा, ‘‘सोच रहा हूँ कि तुम्हें लात से मारूँ कि जूतों से ? तुम्हारी जवानी पर पिल्ले मूतते हैं साले ! थू है तुमको !’’ कहकर उन्होंने घृणा के साथ ज़मीन पर थूक दिया।

  छोटे अचकचाया हुआ खड़ा रहा। रुक–रुककर बोला, ‘‘ऐसा न कहो, गुरू ! बताओ तो कि मुझसे चूक कहाँ हुई है ?’’

  ‘‘तुम साले समझोगे क्या ? तुमने एक भले घर की लड़की की इज़्ज़त फींचकर सारी दुनिया के आगे रख दी। तुम्हारे लिए यह कुछ हुआ ही नहीं ?’’

  कुल इतनी–सी बात है ! जानकर छोटे पहलवान ने इत्मीनान की साँस ली। लापरवाही से कहा, ‘‘गुरू, मैंने तो जो कहा था, भरी अदालत में भगवान की क़सम खाकर कहा। सभी जानते हैं कि अदालत में कही गई बात का कोई ऐतबार नहीं। किसी का इससे क्या बिगड़ा ?’’

  बद्री को चुप देखकर छोटे की हिम्मत कुछ और खुली। अपनी स्वाभाविक पद्धति में यानी सारी दुनिया को भुनगे–जैसा समझते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की, ‘‘इसी बात को लेकर हमें जुतिया रहे हो, गुरू ? वाह गुरू, तुम भी कभी–कभी ऐसी हवा बाँधते हो, कि वाह ! मैं सोचता ही रह गया कि बात क्या है ?’’

  बद्री पहलवान ने अपनी गरदन को दोनों हाथों से मलकर उस पर दो–चार तमाचे–जैसे लगाए। इस पद्धति से उन्होंने गरदन पर जमा हुआ मिट्‌टी का प्लास्टर उखाड़ दिया और इतनी देर तक होनेवाले सोच–विचार को झटककर दूर कर दिया। फिर अचानक हँसकर बोले, ‘‘तुम खानदानी बाँगड़ू हो। तुम्हें कुछ दायें–बायें भी दीख पड़ता है ? यह बेला अब तुम्हारी अम्मा बनने जा रही है। अब चाहे उसे छिनाल कहो, चाहे कुछ और। गाली तुम्हीं पर पड़ेगी।’’

  ‘‘क्या कहा, गुरू ?’’

  ‘‘कहना क्या है ? महीने–भर के भीतर ही बेला का ब्याह होगा। बद्री पहलवान के साथ ! और तुम बजाना तुरही ! कुछ समझ में आया बेटा ?’’

  सरकस के जोकर बेमतलब की बातें बकते हैं और उछल–कूद लगाते हैं। नौटंकी का नगाड़ची सीधे तौर से नगाड़ा बजाते–बजाते बग़ल के भीतर से लकड़ी निकालकर टेढ़ी–मेढ़ी ताल लेने लगता है। अखाड़े में दो–तीन पहलवान हाथ के पंजों पर खड़े होकर बिच्छू की तरह चलते हैं। बछड़े शाम को घर लौटते वक्त सिर झुकाकर टेढ़े–मेढ़े भागते हैं और उछलते हुए दूसरी ओर के तालाब में कूद पड़ते हैं। सनीचर बिना किसी वजह के अचानक कहा करता है, “ उर्र् र्र् र्र् !’’

  बद्री पहलवान की बात सुनकर छोटे को लगा कि इसी तरह की निरर्थक बातों का एक ढेर–जैसा उसके सामने पड़ा है और उसे किसी ने उस पर ज़ोर से पटककर चित कर दिया है। उसके मुँह से यही निकला, ‘‘क्या कहते हो, गुरू ?’’

  ‘‘सुन नहीं रहे हो, क्या कह रहा हूँ ?’’ बद्री बहुत हल्के ढंग से मज़ाक–सा करते हुए कह रहे थे, ‘‘क्या बात है ? कान में बहुत मैल पैठ गया है क्या ? फिर सुन लो, बेला से मैं शादी कर रहा हूँ। उससे वादा कर चुका हूँ। उस दिन तुमने जब इजलास में उसकी बदनामी की तो मेरा एक–एक रोआँ सुलग उठा था। तबीयत हुई थी कि एक लप्पड़ मारकर तुम्हारा सर पेट में खोंस दूँ। पर तुम अपने चेले हो। पालक–बालक समझकर माफ़ कर दिया।’’

  एक लम्बी साँस खींचकर उन्होंने अपनी बात समाप्त की, ‘‘खै़र, जो हुआ सो हुआ, अब अपनी ज़बान पर लगाम लगाकर रहना।’’

  छोटे को अब भी लग रहा था कि वह निरर्थकता के ढेर पर चित पड़ा है और बद्री पहलवान जो कह रहे हैं वह किसी सपने की बात है। वह बोला, ‘‘गुरू, तुम बाँभन, वह बनिया। सोच–समझकर बोलो। बैद महाराज ऐंठ गए तो पूरी इस्कीम मसक जाएगी।’’

  बद्री पहलवान ने कहा, ‘‘हाथी अपनी राह चलते जाते हैं, कुत्ते भूँकते रहते हैं।’’

  छोटे ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘गुरू, तुम तो कहावत में बोल रहे हो। बैदजी इससे थोड़े ही मान जाएँगे !’’

  लगता था कि अपने मन का रहस्य खोलकर बद्री पहलवान हल्के हो गए हैं। उन्होंने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। सिर्फ़ सीटी बजाने लगे।

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nbsp; कुछ देर चलते–चलते छोटे के दिमाग़ में पूरी बात अपने वज़न के साथ पैठी। बेला के बारे में कुछ दिन हुए ख़बर उठी थी कि रुप्पन बाबू ने उसको एक चिट्ठी लिखी है। उड़ते–उड़ते यह बात भी उनके कान तक पहुँची थी कि कोई लड़की बैदजी की छत पर रात में आयी थी और रंगनाथ से टकराकर वापस भाग गई थी। बैदजी की छत से जिन मकानों की छत पर जाया जा सकता है, उनमें गयादीन का भी मकान था। एक दिन रुप्पन बाबू ने यह भी बताया था कि किसी लड़की की लिखी हुई एक चिट्ठी रंगनाथ के हाथ लगी है, पर रंगनाथ उसके बारे में कुछ बता नहीं रहा है। छोटे पहलवान को सन्देह था कि रुप्पन बाबू कई दिनों से बेला को फँसाने के चक्कर में हैं और अब लगभग फँसा चुके हैं। इस दशा में अचानक इस समाचार ने कि बद्री पहलवान का बेला से सम्बन्ध है और वह इतनी गहराई तक जा चुका है, छोटे को लड़खड़ा दिया।

  वे पूछने लगे, ‘‘पर गुरू, बेला के लिए तो, सुनते हैं, रुप्पन बाबू ने कुछ लिखा–पढ़ी की थी ?’’

  ‘‘हाँ, की थी। लड़के हैं। नासमझी कर बैठे।’’

  ‘‘और, सुनते हैं, उधर से भी कोई चिट्ठी आयी थी ?’’

  बद्री पहलवान ने घुड़ककर पूछा, ‘‘किसने बताया तुम्हें ?’’

  ‘‘किसी ने भी नहीं, गुरू !’’

  ‘‘तो जाना कैसे ?’’

  ‘‘सुना था, गुरू !’’

  ‘‘किससे सुना था ?’’

  ‘‘याद नहीं है गुरू, पर किसी ने ऐसे ही कुछ उड़ती–उड़ती बात की थी।’’

  बद्री पहलवान चुप हो गए। जब कोई आदमी बातचीत में ऐसा रुख़ अपना ले जैसा कि पेशेवर गवाह कचहरी में सच कहने की क़सम खाकर जिरह में दिखाते हैं, तो आगे सवाल पूछना बेकार है। बद्री ने कुछ देर चुप रहकर साफ़ तौर से कहा, ‘‘हाँ, चिट्ठी आयी थी। मेरे लिए थी। पर वह चिट्ठी नहीं थी, आजकल की लड़कियों के चोंचले, गाने–बजाने की बातें थीं।’’

  छोटे ने खुशामद करते हुए पूछा, ‘‘तो गुरू, यह किस्सा तो कई साल से चल रहा होगा ? छत ही पर...।’’

  बद्री ने कहा, ‘‘छोटे, इतनी बड़ी बात सबसे पहले मैंने तुमको बतायी है। इतना बहुत है। अब बहुत छानबीन न करो। और देखो, अभी किसी से कहना नहीं।’’

  छोटे पहलवान धुँधलके में किसी के चबूतरे के उस कोने से टकरा गए जो किसी ने गाँव के चलन के अनुसार क़ब्ज़ा करने की नीयत से बनवाया था। मुँह से एक गाली निकालकर, फिर कमर के दर्द के प्रति सम्मान दिखाने के लिए एक बार ‘हाव्’ कहकर उन्होंने वादा किया, ‘‘किसी से नहीं कहूँगा, गुरू।’’

  ‘‘कुछ दिन में तो बात फैलेगी ही, पर अभी उसे ढाँककर रखना है।’’

  ‘‘कह तो दिया गुरू, किसी से नहीं कहूँगा।’’

  कुछ देर बाद बद्री पहलवान हँसने लगे, बोले, ‘‘पर वाह रे छोटे, तुमने भी क्या जोड़ मिलाया। बेला जोगनाथ से साँठ–गाँठ करेगी ! हुँह् ! साला दमड़ी के गुड़–जैसा है ! बेला उसका हाथ पकड़ ले तो रिरियाने लगेगा। उसी से तुमने भिड़ा दिया बेला को। रहे तुम खड्‌डूस–के–खड्‌डूस !’’

  छोटे पहलवान की कमर में एक हूक–सी उठी। लगा, धोबीपाट देकर उन्हें किसी ने दोबारा पटक दिया है।

  एक–दूसरे से अलग होने के पहले बद्री ने फिर छोटे को आगाह किया कि अभी मेरे और बेला के सम्बन्धों का कहीं ज़िक्र मत करना। छोटे ने निष्ठापूर्वक गोपनीयता की शपथ ली, पर वह शपथ गोपनीयता की उन सभी शपथों–जैसी थी जो राजभवनों में ली जाती हैं और परिणामस्वरूप दूसरे दिन ही बद्री पहलवान को कई ऐसे लोग मिले जो उन्हें बदली हुई नज़रों से देख रहे थे।

  28

  उस गाँव में एक दुखी लड़का था जिसका नाम रुप्पन बाबू था। कुछ दिन पहले उसका रोब लम्बा–चौड़ा और रुतबा ऊँचा था, क्योंकि उसके बाप का नाम वैद्यजी था और इसके अलावा उसका अपना भी एक नाम था। वह दसवें दर्ज़े में कई वर्षों से पढ़ रहा था और विद्यार्थियों का लीडर था। तहसीलदार उसका हमजोली, थानेदार उसका दरबारी और प्रिंसिपल उसका मातहत था। वह बहुधा कॉलिज के मास्टरों के व्यवहार और आचरण से असन्तुष्ट रहता था और मास्टर लोग उसे, ‘‘भयानां भयं भीषणं भीषणानां’’ और पिताओं का पिता मानते थे। घर पर उसकी हैसियत एक तेज़-तर्राक बछेड़े–जैसी थी और यह निश्चय था कि देश के राजनीतिक चरागाह में स्वच्छन्द चरनेवाली होनहार सन्तानों की तरह किसी दिन वह भी चरने की कला सीख जाएगा और �
��ाप के मर जाने पर इधर–उधर के रास्तों में साल–छ: महीने बिताकर किसी दिन वह अपने बाप की जगह पर ही जुगाली करता हुआ दिखायी देगा।

  पाँच महीने पहले उस गाँव में एक लड़का आया था जिसका नाम रंगनाथ था। लोग उसके बड़प्पन को पहचानते थे, क्योंकि उसके मामा का नाम वैद्यजी था और इसके अलावा उसमें अपना भी एक बड़प्पन था। उसने इतिहास में एम. ए. पास किया था। वह देखने में भला और सीधा था, पर चाहने पर टेढ़ी बात भी कर लेता था। लगभग प्रत्येक पढ़े–लिखे भारतीय की तरह वह अपने से असम्बद्ध प्रत्येक घटना को घटना ही की तरह देखता और उसे भूल जाता और बाद में उसके बारे में परेशान न होता था। इतिहास पढ़ चुकने के कारण उसे राजनीतिक और सामाजिक शोषण और उत्पीड़न की बहुत–सी कहानियाँ आती थीं, पर उसके दिमाग़ में कभी यह न आया कि वह भी इतिहास का एक हिस्सा है और अगर चाहे तो इतिहास को बना–बिगाड़ सकता है। वह देश के पच्चानवें प्रतिशत बुद्धिजीवियों में था जिनकी बुद्धि उनको आत्मतोष देती है, उन्हें बहस करने की तमीज़ सिखाती है, दूसरों को क्या करना चाहिए और क्या न करना चाहिए, इस पर उनसे भाषण कराती है और न करने के मामले में कुछ उनकी भी जिम्मेदारी है — बेहूदा विचार को उनसे कोसों दूर रखती है।

 

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