Rag Darbari
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जोगनाथ ने सिर्फ़ सिर हिलाया और दुकानदार को पुकारकर कहा, ‘‘एक पौआ और देना भाई ! चाहो तो इसे फोकट में डाल देना।’’
थोड़ी देर में जब वे लोग लड़खड़ाते हुए सींक के परदे के बाहर आए तो उनके सामने सड़क थी और दो–एक मरियल कुत्तों के अलावा कोई न था।
जो आदमी अभी कराहता हुआ निकला था, वह अब सीधे–सादे ढंग से उनके सामने से निकल गया और उन्हें इसका पता ही नहीं चला। लौटते समय उस आदमी के भीतर का कलुष धुल गया था और धर्म में उसकी आस्था बढ़ गई थी, क्योंकि थाने पर पहुँचने के पहले ही उसे एक विद्वान् ने समझाया था : ‘‘क्या होगा रपट लिखाने से ? जो गया, सो गया। गया माल फिर कभी वापस आता है ?
‘‘बताओ, तुम हिन्दू हो कि मुसलमान ? हिन्दू हो तो करम को मानते हो कि नहीं ? तुम्हारे करम में ये पैंतालीस रुपये नहीं लिखे थे। अब दौड़–धूप करना बेकार है। भगवान को यही मंजूर था।...
‘‘जाओ, जान बच गई; यही बहुत है। पारसाल वहीं एक आदमी को बकरे–जैसा काट डाला गया था।
‘‘राम का नाम लो और घर जाकर सत्तनारायन की कथा बँचवाओ। मामले-मुक़दमे में जो ख़र्च करना हो उसे धरम–करम में ख़र्च करो।
‘‘गरम दूध में हल्दी डालकर पी लेना और करवट बदलकर सो जाना; कल सवेरे तक सब भूल जाएगा।’’
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किसी ज़माने में दार्शनिक लोग परमात्मा के अस्तित्व के बारे में बहस किया करते थे। अब वह बहस गेहूँ को लेकर होने लगी है। दार्शनिकों का एक वर्ग इस मत का है कि देश में गेहूँ काफ़ी मात्रा में मौजूद है, पर व्यापारियों की शरारत के कारण बाज़ार में नहीं आ पाता। दूसरा वर्ग इस मत का है कि गेहूँ नाम की कोई चीज़ होती ही नहीं है और अगर होती भी हो, तो वह कम–से–कम इस देश में तो नहीं ही है। बहस का यह दौर कुछ दिनों से शिवपालगंज में भी आ गया था और वहाँ गेहूँ के साथ ही लोग दूध–दही–घी आदि के बारे में भी नास्तिकता दिखाने लगे थे।
ऐसे भुखमरे वातावरण में अखाड़े क्या खाकर या खिलाकर चलते ? कुछ वर्ष पहले गाँव के लड़के कसरत और कुश्ती से चूर–चूर होकर घर लौटते तो कम–से–कम उन्हें भिगोये हुए चने और मट्ठे का सहारा था। अब वह सहारा भी टूटने लगा था। यह और इस प्रकार के कई तथ्य मिलकर कुछ ऐसा वातावरण पैदा कर रहे थे कि गाँव में नौजवानों को निकम्मा बन जाने के सिवाय और दूसरा कार्यक्रम ही नहीं मिलता था। वे फटे–पुराने पर रंगीन पतलूनों–पायजामों के सहारे अपनी दुबली–पतली टाँगों को ढककर और सीने पर गोश्त हो या न हो, सीने के अन्दर सायरा बानू के साथ सोने का अरमान भरकर, गली–कूचों में अपने पान की पीक फैलाते हुए निरुद्देश्य घूमा करते थे। उनमें बहुत–से कभी–कभी खेतों–कारखानों और जेलों का चक्कर भी लगा आते थे। जो वहाँ जाते हुए हिचकते थे, वे स्थानीय कॉलिजों में बाँगड़ूपन की शिक्षा ग्रहण करने के लिए चले जाते। ये कॉलिज प्राय: किसी स्थानीय जननायक की प्रेरणा से शिक्षा–प्रचार के लिए, और वास्तव में उसके लिए विधानसभा या लोकसभा के चुनावों की ज़मीन तैयार करने के उद्देश्य से खोले जाते थे और उनका मुख्य कार्य कुछ मास्टरों और सरकारी अनुदानों का शोषण करना था। ये कॉलिज सिर्फ़ ज़माने के फै़शन के हिसाब से बिना आगा–पीछा सोचे हुए चलाये जा रहे थे और यह निश्चय था कि वहाँ पढ़नेवाले लड़के अपनी ‘रिआया’ वाली हैसियत छोड़कर कभी ऊपर जाने की कोशिश करेंगे और ऊँची नौकरियाँ और व्यवसाय जिनके हाथ में हैं, उनके एकाधिकार को इन कॉलिजों की ओर से कोई ख़तरा नहीं पैदा होगा।
जो भी हो, इस हल्ले में अखाड़े खत्म हो रहे थे और गाँव के नौजवानों का शारीरिक विकास अब उनके मानसिक विकास के स्तर पर आ गया था। इस दृष्टि से शिवपालगंज में एक अखाड़े का होना, और उस पर कई लड़कों का नियमित रूप से आना एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। कहने की ज़रूरत नहीं, यह बद्री पहलवान की वजह से था। वे कई सालों से अखाड़े पर पहुँचकर कसरत करते, अपने पट्टों को कुश्ती लड़ाते और जब वे किसी को पटककर उसके शरीर के किसी भाग को घायल कर देते तो माना जाता था कि वह अब पूरा पहलवान हो गया है। कई दिन कसरत करने और कुश्ती लड़ने के बाद किसी पट्टे का कराहते हुए घर लौटना इस बात का सबूत था कि वह अपने दीक्षान्त–समारोह से डिग्
री लेकर वापस आ रहा है।
अखाड़े से दो पहलवान झूमते हुए निकले। एक तो बद्री थे, दूसरे छोटे। दोनों की खोपड़ियाँ घुटी थीं। उन पर पसीने की मदद से मिट्टी का पलस्तर–जैसा चढ़ गया था। गरदन पर पीछे की ओर गैंडे–जैसी झुर्रियाँ। दोनों ने लँगोट की पट्टी आगे हाथी की सूँड़ की तरह लटका ली थी। सँकरी पट्टी के दोनों ओर से संक्षिप्त अण्डकोष ब्रह्माण्ड में प्रदर्शित हो रहे थे। पर जिस तरह कला के नाम पर हेनरी मिलर और डी. एच. लारेंस की अश्लीलता को माफ़ी मिल जाती है, उसी तरह भारतीय व्यायाम के नाम पर इन दोनों पहलवानों को यह सब दिखाने की छूट मिल गई थी।
छोटे पहलवान का दीक्षान्त-समारोह कई साल पहले हो चुका था, पर शायद अब उन्होंने कोई पोस्ट–ग्रेजुएट डिग्री पायी थी और इसलिए वे रह–रहकर बहुत धीरे–से कराह उठते थे। पर आत्म–सम्मान के कारण वह कराह मुँह से ‘हाय’ न बनकर लम्बी साँस के साथ ‘हाव्’ के रूप में निकलती थी। बद्री चुपचाप उनके साथ चल रहे थे, जैसे इन बातों से उनका कोई सरोकार न हो।
आज छोटे को बद्री पहलवान ने धोबीपाट के दाँव से चित किया था।
इस दाँव का प्रयोग करनेवाले पहलवान को एक ऊँचे दर्ज़े के कवि की तरह से काम करना पड़ता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी ‘विजयिनी’ नामक कविता में एक औरत के जलाशय में नहाते समय कामदेव आदि कुछ पात्रों की अद्भुत कल्पना की है। धोबीपाट लगाने के पहले पहलवान को उससे भी अधिक अद्भुत कल्पना करनी पड़ती है कि यह अखाड़ा नहीं, बल्कि एक आकर्षक जलाशय है, ‘‘शमीरन प्रोलाप बोकितोछिलो प्रच्छायशघन पल्लव–शयनतले...।’’ उस वातावरण में वह अपने को एक धोबी के रूप में देखता है और अपने प्रतिद्वन्द्वी को किसी औरत के पेटीकोट की शक़्ल में। फिर उसके हाथ को खींचकर अपनी पीठ की ओर से कन्धे पर लाते हुए–जिस तरह धोबी पत्थर पर कपड़ा पटकता है–वह उसे अखाड़े के बीच पटक देता है। पटकते समय उसे यह ध्यान रखना पड़ता है कि पेटीकोट इस तरह गिरे कि उसका सामनेवाला हिस्सा ऊपर रहे, यानी प्रतिद्वन्द्वी जब पटका जाए तो वह चित गिरे। इसके बाद, ‘‘विजय ! विजय ! महान विजय ! शत्रु जानु पाति बोशि, निर्बाक् विश्शय भरे, नतशिरे...।’’
बद्री पहलवान ने आज छोटे को पटकने में कुछ ज़्यादा कल्पना लगा दी थी। यह सोचकर कि यहाँ अखाड़ा नहीं, तालाब है, उन्होंने यह भी सोच लिया कि यह अखाड़े की मेंड़ नहीं, बल्कि घाट का पत्थर है। नतीजा यह हुआ कि जिस समय पहलवान ने चित्त होकर अखाड़े के ऊपर छाए हुए ‘प्रच्छाय शघन पल्लव’ देखे तो उनकी निगाह के आगे चिनगारियाँ–सी उड़ रही थीं, उनकी कमर के नीचे का हिस्सा अखाड़े के बाहर और ऊपर का अखाड़े के भीतर था और कमर टूटी नहीं थी तो यह उसकी बेहयाई थी।
बद्री पहलवान अगर छोटे के उस्ताद न रहे होते तो वे इस वक्त आँख से आँसू और मुँह से फेना गिराते हुए उन्हें हज़ारों गालियाँ दे रहे होते। पर उस्ताद का लिहाज़ करके वे इस समय चुप थे और जब चुपचाप चलना कठिन हो जाता तो वे मुँह से एक ‘हाव्’ निकाल देते थे।
पर विपत्ति यहीं नहीं समाप्त होनी थी। चलते–चलते बद्री पहलवान ने पूछा, ‘‘क्यों जी, उस दिन तुम जोगनाथ की गवाही में क्या–क्या कह आए ?’’
‘‘कौन साला जोगनाथ का गवाह था ? मैं तो पुलिस की गवाही देने गया था।’’ छोटे ने लापरवाही से — का दर्द दबाकर — दिया।
बद्री ने शान्तिपूर्वक कहा, ‘‘सीधी बात कही जाए तो सीधे जवाब दो। साले–बहनोई को बीच में मत घसीटो।’’
‘‘तो कौन टेढ़ा–टेढ़ा चल रहा है ?’’ छोटे ने कहा, पर आवाज़ कुछ दबी हुई थी।
बद्री पहलवान ने इस निरर्थक बात को अनसुना कर दिया। पूछा, ‘‘तुमने गवाही में बेला के बारे में क्या कहा था ?’’
‘‘कहना मुझे क्या था ? जो मुँह में आया, कह दिया।’’
बद्री पहलवान बड़ी मुलायमियत से बोल रहे थे। उन्होंने छोटे का हाथ पकड़कर पूछा, ‘‘उसकी जोगनाथ से कुछ साँठ–गाँठ है क्या ?’’
छोटे ने अपना हाथ धीरे–से खींच लिया। उँगली पकड़कर पहुँचा पकड़ा जाता है और पहुँचा पकड़कर धोबीपाट के सहारे आदमी को चित किया जाता है, यह वे अभी देख चुके थे। बात टालने के लिए बोले, ‘‘मैं क्या जानूँ, किसकी किससे साँठ–गाँठ है। गाँव में चारों तरफ़
अरहर के खेत हैं। कौन किससे लागलपेट करता है, मैं कहाँ–कहाँ झाँकता फिरूँ ?’’
बद्री पहलवान उसी तरह मुलायमियत के साथ बोलते रहे। उन्होंने पूछा, ‘‘पर तुमने तो कहा था कि तुमने बेला को जोगनाथ के साथ सटर–पटरवाली हालत में देखा है।’’
‘‘कहने से क्या होता है ?’’
बद्री पहलवान अचानक खड़े हो गए। आवाज़ को कड़ी करके बोले, ‘‘होता क्यों नहीं है ? कहा था कि नहीं, बोलो !’’
छोटे पहलवान को अब कुछ शंका हुई। उनकी आवाज़ से आत्मविश्वास की खनक जाती रही। जैसे शाश्वत साहित्य लिखनेवाला क्रान्तदर्शी साहित्यकार भी रेडियो के अहलकारों के सामने झिझककर बात करता है, उसी तरह छोटे बद्री पहलवान के आगे सकपका गए। माफ़ी माँगते हुए बोले, ‘‘कहा क्यों नहीं था, गुरू ! पर कहने को तो बहुत–कुछ कहा था। अदालत की गवाही का मामला। जो मुँह में आया, कहते चले गए। कौन सच बोलना था !’’