Rag Darbari
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एक जगह फुटपाथ पर धोती–कुरता–टोपीवाले चार–छ: महाशय टहल–टहलकर गप लड़ा रहे थे और अपने–आपसे बहुत खुश थे। कभी–कभी खुशी के अतिरेक में वे एक–दूसरे के पैर के पास पान की एक लम्बी पीक थूक देते थे। रुप्पन बाबू, जिनका जन्म ‘अंग्रेज़ो, भारत छोड़ो’ का नारा बुलन्द हो जाने के बाद हुआ था, बड़े विश्वास से बोले, ‘‘खुदा अपने गधों को जलेबियाँ खिला रहा है। हर शाख़ पै उल्लू बैठा है।’’
ये काव्य जनसाधारण में बहुत ही प्रचलित और विख्यात हैं और इन्हें कहकर रुप्पन बाबू ने कोई बड़ी मौलिकता नहीं दिखायी थी, पर उन्होंने इन्हें जिस अन्दाज़ से कहा, उससे लगा कि वे गम्भीर होते जा रहे हैं। प्रिंसिपल ने उन्हें पुचकारा और वैद्यजी से कहा, ‘‘चलिए महाराज, कुछ खा–पी लिया जाए। लड़के की तबीयत उखड़ रही है।’’
उन्होंने सबसे पहले पान की दुकान खोजने का विचार किया। हिन्दुस्तानी के लिए यह कोई कठिन बात नहीं। राबिन्सन क्रूसो के बजाय कोई हिन्दुस्तानी किसी एकान्त द्वीप पर अटक गया होता तो फ्राइडे की जगह वह किसी पान बनानेवाले को ही ढूँढ़ निकालता। वास्तव में सच्चे हिन्दुस्तानी की यही परिभाषा है कि वह इन्सान जो कहीं भी पान खाने का इन्तज़ाम कर ले और कहीं भी पेशाब करने की जगह ढूँढ़ ले। पर इस बाज़ार में पान की दुकान खोजने की ज़रूरत न थी, दुकानें खुद आदमी को खोजती थीं। यहाँ पान की दुकानें आगे की ओर थीं और पान की दुकानें पीछे की ओर थीं और दायीं ओर और बायीं ओर भी पान की ही दुकानें थीं। ये तीनों आदमी बिलकुल अपने सामने की दुकान के पास जाकर खड़े हो गए। बड़े–से शीशे में वैद्यजी ने अपने साफ़े का कोण ठीक किया, रुप्पन बाबू ने आँख दबाकर मुस्कराने की कोशिश की और प्रिंसिपल साहब पानवाले से बातें करने लगे।
उन्होंने धीरे–से कहा, ‘‘तीन गिलास, ज़रा गाढ़े मेल के हों।’’
वैद्यजी ने मासूम बनकर पूछा, ‘‘क्या है ? क्या है ?’’
प्रिंसिपल साहब ने कहा, ‘‘कुछ नहीं। बस यही, पान के पहले पानी का इन्तज़ाम हो रहा है।’’
तँबोली ने भंग घोलकर तीन गिलासों में डाली। प्रिंसिपल साहब बोले, ‘‘ज़रा काली मिर्च और बादाम बोलता हुआ होना चाहिए।’’
तँबोली की दुकान पर एक अत्यन्त सुन्दर और स्वस्थ नौजवान की फ़ोटो लटकी थी जो यक़ीन किया जाता था, उस थुल–थुल और बेहूदा आदमी की दस–पन्द्रह साल पहले की तस्वीर है। रुप्पन बाबू ने प्रिंसिपल साहब की कोहनी छूकर कहा, ‘‘यहाँ खँडहर भी नहीं हैं जो बताते कि इमारत बुलन्द थी।’’
प्रिंसिपल साहब ने कहा, ‘‘उँह् ! किसी दूसरे की तस्वीर होगी।’’
तँबोली ने इस अपमान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखायी, सिवाय इसके कि भंग बनाने के काम में तेज़ी आ गई और पूरा काम वह पहलवानी ढंग से करने लगा। रुप्पन बाबू इस डर से कि चुराकर भंग बेचने के जुर्म में कोई पुलिस का आदमी तँबोली का चालान न कर दे, इधर–उधर देखने लगे।
चारों तरफ़ अंग्रेज़ी की बहार थी। अंग्रेज़ी के विज्ञापन। अंग्रेज़ी ही में दुकानों के नाम। गन्दे कालरवाले क्लर्क, लक़दक़ कपड़ोंवाली व्यापारियों की औलादें, आवारा–जैसे घूमनेवाले बहुत–से राजनीतिक कबाड़ी, निगाह से ही सारी दुनिया को परास्त करनेवाले, ठुड्डी ऊँची किये हुए, छके–छकाए अफ़सर–सभी अंग्रेज़ी बोल रहे थे। अंग्रेज़ी पोशाक में लोग तने हुए आते थे और तने हुए निकल जाते थे। एक अंग्रेज़ी सिनेमा के पोस्टर पर एक विलायती औरत लगभग नंगी–एक तख्ते पर अधलेटी पड़ी हुई चूमी जा रही थी। दो-चार काले–कलूटे, मैले–कुचैले बच्चे पास खड़े हुए उसका मुआइना कर रहे थे। पास की किसी ग्रामोफ़ोनवाली दुकान पर पॉप–म्यूज़िक का एक रिकार्ड बज रहा था और कुछ छोकरे–यह भूलकर कि जो गेहूँ उन्होंने खाया है वह अपनी ग़रीबी का कोढ़ दिखाकर बाहर से मँगाया गया है–हाथ-पाँव ऊल–जलूल ढंग से चला–चलाकर मस्त हुए जा रहे थे। रुडयार्ड किप्लिंग का धड़ ऊपर और सिर नीचे लटकाकर पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियाँ विराट् रूप से मिल रही थीं।
दो लड़कियाँ झबरे बालों, चूड़ीदार पायजामों और जिस्म को पहलवानी ढंग से तान देनेवाले कुरतों में लैस, अंग्रेज़ी में बात करती चली जा रही थीं। रुप्पन बाबू के मन मे�
� आया कि दोनों को दबोचकर कहीं भाग जाएँ। अपनी इस जंगली इच्छा को उदात्त रूप देकर उन्होंने प्रिंसिपल साहब से कहा, ‘‘देखा आपने ! लगता है, सब विलायत से आयी हैं। उन्हीं के पेशाब से पैदा हुई हैं।’’
प्रिंसिपल साहब इस नृशास्त्रीय बहस में नहीं घुसे। सिर्फ वैद्यजी को सुनाने की ग़रज़ से बोले, ‘‘इस खन्ना मास्टर की सोहबत का असर तुम्हारे ऊपर चढ़कर बोल रहा है रुप्पन बाबू ! तुम भी अश्लील बोली बोलने लगे हो।’’
रुप्पन बाबू ने भंग का गिलास दुकान पर ठनाक् के साथ रख दिया। बोले, ‘‘पेशाब अश्लील चीज़ है ?’’
‘‘बात पेशाब की नहीं, खन्ना मास्टर की सोहबत की है।’’
रुप्पन बाबू अपने पिता की ओर मुखातिब हुए। बोले, ‘‘आप ज़रा इन प्रिंसिपल साहब को टोक दीजिए। ये खन्ना मास्टर की बात यहाँ न उठायें। नहीं तो, मैं अगर साफ़-साफ़ कहना शुरू कर दूँगा तो इनको भागे राह न मिलेगी।’’
वैद्यजी शान्ति और क्षमा के देवदूत की तरह, अपने पंख फड़फड़ाकर, अर्थात् मूँछों पर गिलास से निकलकर आए हुए द्रव को दोनों ओर से पोंछकर बोले, ‘‘मुझे बीच में न डालो रुप्पन ! प्रिंसिपल साहब को बड़ा खेद है कि तुम अब खन्ना की ओर से बोलने लगे हो। स्वयं बात करके यह विषय निबटा लो।’’
वे लोग रिक्शा–स्टैण्ड की ओर जा रहे थे। यह सुनते ही रुप्पन बाबू अपनी जगह रुक गए। झोला फुटपाथ पर रखकर उन्होंने प्रिंसिपल साहब से कहा, ‘‘तो आओ प्रिंसिपल साहब, पहले खन्ना के मामले को ही निबटा लिया जाए।’’
प्रिंसिपल साहब ने दूसरी ओर मुँह फेरकर चलते–चलते कहा, ‘‘फिर कभी।’’
रुप्पन बाबू तैश में आकर बोले, ‘‘आज का काम कल पर छोड़नेवाले चिड़ीमार कहीं और रहते होंगे। इस बात का निपटारा अभी होगा। कभी पर छोड़ दिया तो फिर कभी नहीं होगा।’’
वैद्यजी को एक पीपल के पेड़ के नीचे रखा हुआ शिवलिंग दिख गया था। उसके ऊपर एक छोटे मॉडल का मन्दिर बना दिया गया था। शिवलिंग देखते ही वैद्यजी भक्ति से आतुर हो गए। यह गोराशाही बाज़ार है जिसमें भगवान् का नाम छिपाकर लेना चाहिए की यह विवेक बात भूलकर वे पीपल के पेड़ के नीचे पहुँच गए और भरे गले से शंकर की स्तुति बाँचने लगे।
फुटपाथ पर प्रिंसिपल साहब और रुप्पन बाबू कल का काम आज करने के लिए खड़े हो गए।
वैद्यजी ने आँखें मूँद लीं। पीठ–पीछे मोटरें आती–जाती रहीं और लड़कियों की अंग्रेज़ी में सनी हुई आवाज़ें हवा में तड़प पैदा करती रहीं। खिलौनेवाले, किसी सिनेमा में किसी खिलौनेवाली ने जैसी ट्यून बजायी थी, उसी की नक़ल पर कर्णविस्फोटक संगीत की रचना करते रहे। पर जिस तरह विरोधी पक्ष की चीख़–पुकार और गाली– गलौज़ को निस्सार मानकर असली मिनिस्टर कुनबापरस्ती के रास्ते पर सीधे चलता रहता है, उसी निर्लिप्त भाव से वैद्यजी भी इन आवाज़ों को अनसुना करके शंकरजी की प्रार्थना में लगे रहे।
हज़ारों स्तोत्रों की जड़ी–बूटियों को कूट–पीसकर उनकी प्रार्थना का जो कपड़छान चूरन निकला, वह इस प्रकार था :
‘‘हे शंकर, शत्रुओं को मारो !
‘‘तुम रुद्र हो। मन्युमय हो, अखिल सृष्टि में संहारक–भाव से सन्निविष्ट हो। गाँव में रामाधीन भीखमखेड़वी कॉलिज की मैनेजरी का चुनाव हार चुका है। उसने डिप्टी डायरेक्टर ऑफ़ एजुकेशन के यहाँ प्रार्थनापत्र भेजा है कि चुनाव तमंचे के ज़ोर से हुआ है। पुलिस कप्तान के यहाँ भी उसने शिकायत की है। तुम भंग और धतूरा खाते हो। हे शंकर ! इन हाकिमों की भ्रष्ट बुद्धि में तुम अपना भंग और धतूरा डालकर उसे कुछ और भ्रष्ट कर दो। उन्हें हमारे पक्ष में लिखने को प्रेरित करो। हे भूतनाथ ! रामाधीन भीखमखेड़वी को मारो।
‘‘हे त्र्यम्बक, सुगन्धिमय, पुष्टिवर्धन, मुझे मृत्यु के संग से वैसे ही तोड़ दो जैसे डण्ठल से खीरा तोड़ा जाता है; पर अमृतत्व से मेरा साथ न तोड़ो। और हे शिव, शत्रु को तुम अमृतत्व के डण्ठल से तोड़कर मृत्यु के अन्धकूप में ठेल दो। तुम सेवक की बाधा को अपनी बाधा मानते हो। तुम मुझ सेवक के सेवक सनीचर की बाधा दूर करो। प्रधान के चुनाव के विषय में उसके विरुद्ध शत्रु ने चुनावयाचिका प्रस्तुत की है। उसमें सनीचर को विजय दो। यदि शत्रु याचिका वापस न ले, तो उसे मारो।
/> ‘‘हे उमापति, जगत्कारण, पन्नगभूषण शिव ! रामस्वरूप कोअॉपरेटिव सुपरवाइज़र के सवाल को उठाकर शत्रुगण यूनियन में ग़बन की बात कर रहे हैं। वे चिल्ला रहे हैं कि उसमें मेरा भी हाथ था। कोअॉपरेटिव इन्स्पेक्टर नीच, धूर्त एवं ईमानदार है और हाथ नहीं चढ़ रहा है। पिछली बार वह मुझे अकेले में भय दिखा गया है, तुम इस कोअॉपरेटिव इन्स्पेक्टर को मारो।
‘‘हे रुद्र ! दिविलोक में तुम्हारा अस्त्र वर्षा है, अन्तरिक्ष में तुम्हारा अस्त्र वायु है, भूलोक में तुम्हारा अस्त्र अन्न है। शत्रु को तुम चाहे बिजली गिराकर, चाहे आँधी चलाकर, चाहे कॉलरा या गेस्ट्रोइण्ट्राइटिस से, जिस किसी अस्त्र से तुम्हें सुभीता हो उसी से मारो।