Rag Darbari
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‘‘हे शिव, हे महेश, मैं तुम्हारा ध्यान करता हूँ। तुम परानन्दमय हो, अपने तेज से नभोवकाश को व्याप्त किये हो, अतीन्द्रिय हो, सूक्ष्म हो, अनन्त हो, आद्य हो, निस्संग हो, निर्लिप्त हो।
‘‘इसलिए हे शिव, शत्रुओं को मारो।’’
वैद्यजी ने बड़ी ही दीनता से शंकर की वन्दना की। इतने बड़े शहर में तरक़्की और तर माल पाने की इच्छा से पीड़ित सैकड़ों अफ़सर सवेरे पाँच घण्टे तक पूजाघर में बैठे–बैठे जितनी दीनता एक साथ मिलकर भी नहीं निकाल पाते होंगे, उससे ज़्यादा दीनता अकेले वैद्यजी ने रास्ते में खड़े–खड़े पाँच मिनट के भीतर निकालकर शंकरजी के सामने पेश कर दी। पर इफरात हो जाने के कारण उनका बाज़ार–भाव गिर गया है, शायद इसीलिए दीनता की उत्तम क्वालिटी और मात्रा का शंकरजी पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा। शिवलिंग जैसा था वैसा ही अटल रहा। उससे एक चिनगारी तक नहीं निकली। एक माला तक नीचे नहीं खिसकी।
वैद्यजी ने जब आँख खोली तो देखा, भौतिक जगत् वैसा ही है जैसा उनके आँखें मूँदने के पहले था। फ़र्क़ यही था कि दस गज़ की दूरी पर रुप्पन बाबू चीख़–चीख़कर प्रिंसिपल से बात कर रहे थे :
‘‘तुम बड़े तीसमारख़ाँ बने हो। मुझे खन्ना का लौण्डा बताते हो ? मैं किसी साले के गुट में नहीं हूँ। मैं तो सिर्फ़ सच्चे का साथ देता हूँ। क्या समझे प्रिंसिपल साहब ?’’
प्रिंसिपल साहब बड़े की तरह हँसकर बोले, ‘‘बहुत हो गया रुप्पन, अब चुप हो जाओ।’’
‘‘अभी तो कुछ नहीं हुआ है, प्रिंसिपल साहब ! कहे देता हूँ, जो तुमने 107 का मुक़दमा चलवाया है, उसमें कल ही सुलह हो जानी चाहिए। कल के बाद अगर इसकी पेशी पड़ी तो समझ लेना, सभी इस्टूडेण्ट, ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ पर उतर आएँगे। तुम्हारी पार्टीबन्दी वहीं धरी रह जाएगी।’’
‘‘रुप्पन !’’ वैद्यजी ने नज़दीक आते हुए कड़ी आवाज़ में पुकारा। पर उन पर वैद्यजी की मौजूदगी का असर नहीं हुआ। वे बोले, ‘‘पिताजी, मैं तब नहीं बोला था। खन्ना मास्टर का और प्रिंसिपल साहब का जब झगड़ा हुआ, मैं वहीं मौजूद था। बल्कि मैंने ही बीच–बचाव कराया था। यह 107 का मुक़दमा बिलकुल झूठा है। खन्ना मास्टर को फँसाने के लिए चल रहा है। इस्टूडेण्ट समाज इसको बिलकुल सपोर्ट नहीं करेगा।’’
वैद्यजी ने ठण्डी आवाज़ में कहा, ‘‘कोई बात नहीं, कोई बात नहीं। घर चलकर इस पर विचार कर लेंगे।’’
न जाने प्रिंसिपल साहब को क्या हो गया, वे एकदम से चीख़कर बोले, ‘‘विचार तो कर लीजिएगा महाराज, पर रुप्पन ने यहाँ बीच बाज़ार में मेरी बेइज़्ज़ती की है। खन्ना के पीछे इन्होंने मुझे क्या–क्या नहीं कहा ! अब क्या बताऊँ, मिसेज़ खन्ना ने इनका दिमाग़ बिगाड़ दिया है। परदे के पीछे क्या हो रहा है, अब मैं क्या बताऊँ !’’
वैद्यजी ने गम्भीरता से कहा, ‘‘बताने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं सब जानता हूँ।’’
वे चलने को हुए। पर रुप्पन बाबू ने उन्हें रोककर कहा, ‘‘अब पिताजी, यह बात यहीं तय हो जानी चाहिए। बोलिए, आप क्या जानते हैं ? बोलिए, बोलिए ! मिसेज़ खन्ना को इस बातचीत में आपने क्यों घसीटा है ?’’
वैद्यजी रुक गए। उन्होंने नाटकीय शैली में प्रिंसिपल की ओर देखा। उस निगाह ने प्रिंसिपल को जीत लिया। फिर उसी शैली में उन्होंने रुप्पन बाबू को देखा। कोई शिलिर–विलिर टाइप का आदमी होता तो वह उस निगाह के आगे वहीं ढह जाता, पर रुप्पन बाबू इस मामले में अपने बाप के भी बाप थे। लपलपाते हुए बोले, ‘‘बोलिए न, रुक क्यों गए ?’’
वैद्यजी ने साँस भरकर कहा, ‘‘मैं जानता हूँ रुप्पन, तुम अचानक अपने गुरु से क्यों द्रोह करने लग गए हो और खन्ना मास्टर तुम्हारे क्यों साथी बन गए हैं। स्पष्ट बात तो यह है कि मुझे तुम्हारा वहाँ आना–जाना उचित नहीं जान पड़ता।’’
रुप्पन बाबू कुछ देर चुपचाप खड़े रहे। फिर उन्होंने गले में लगे हुए रूमाल को कसा। हाथ में झोला लटकाते हुए बोले, ‘‘समझ गया। आप मेरे कैरेक्टर पर शुबहा करते हैं। मैं सब समझ गया।’’ वे उँगली उठाकर भविष्यवाणी करनेवाले पोज़ में बोले, ‘‘इन्हीं प्रिंसिपल साहब ने आपके कान भरे हैं। मैं जानता हूँ। इसका नतीज़ा अच्छा न होगा।’’ अचानक उन्होंने घूमकर कहा, ‘‘और बद्री दादा ? ग
ाँव–भर में उनकी थुड़ी–थुड़ी हो रही है। वे बेला को अपने घर बैठाले ले रहे हैं। उनसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती ? उनके कैरेक्टर पर...।’’
प्रिंसिपल ने समझ लिया कि अब बिजली गिरनेवाली है। इसके पहले कि अपने बड़े लड़के की बदचलनी की शिकायत सुनकर वैद्यजी फुटपाथ पर बेहोश होकर गिरें, प्रिंसिपल ने रुप्पन बाबू को रोककर कहा, ‘‘क्या बक रहे हो रुप्पन बाबू, होश में आओ।’’
वैद्यजी से बोले, ‘‘जाने भी दीजिए महाराज, रुप्पन बाबू अभी लड़के हैं। कहीं कुछ सुन लिया, उसी को चिल्लाते हुए घूम रहे हैं।’’
पर वैद्यजी को प्रिंसिपल की ओर से इस लीपापोती या सान्त्वना की ज़रूरत न थी। रुप्पन बाबू के आवेश को वे शान्ति और गम्भीरता के साथ झेल रहे थे। उनके चेहरे पर, मूँछ की दो-तीन फड़कनों के सिवाय, कोई भी ‘आकार–विभ्रम’ नहीं दिखायी दिया। रुप्पन बाबू जोश में बद्री के प्रेमकाण्ड की भर्त्सना करने लगे। पहले वे उसके इतिहास में घुसे। बाद में उन्होंने मसले की तत्कालीन परिस्थिति से सम्बन्धित कुछ तथ्य और आँकड़े प्रस्तुत किये। अन्त में उन्होंने वैद्यजी की सब–देखते–हुए–न–देखने की कायर और पक्षपातपूर्ण नीति की निन्दा की। उन्होंने यह प्रमाणित करना चाहा कि वैद्यजी उनके और बद्री के साथ दोहरे मानदंड लागू कर रहे हैं जो प्रजातन्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों के ख़िलाफ़ है। बात समाप्त करते–करते उनका चेहरा तमतमा गया, होंठ फेन से गीले हो गए और आँखें मिचमिचाने लगीं।
प्रिंसिपल साहब पहले ही सान्त्वना के शब्दों को बेकार समझकर अपना माल खिसियाए हुए मेवाफ़रोश की तरह अपने झोले में समेट चुके थे। वैद्यजी पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया न देखकर रुप्पन बाबू भी चुप हो गए और किसी तरकीब से कतराने की सोचने लगे। वैद्यजी ने पूरी बात शान्त भाव से सुन ली थी, गोया वह रुप्पन बाबू का आवेशपूर्ण प्रलाप न होकर गीता के समत्वयोग का निचोड़ हो जिसे उन्हें फुटपाथ पर बड़े प्रेम से पिलाया जा रहा हो। रुप्पन के चुप हो जाने पर उन्होंने प्रिंसिपल साहब से कहा, ‘‘चलिए, स्टेशन वापस चला जाय। गाड़ी का समय हो रहा होगा।’’
रुप्पन बाबू अपने पिता के इस शान्तिपूर्ण रवैये के सामने लड़खड़ा गए थे। अचकचाते हुए उन्होंने अनिश्चय के साथ कहा, ‘‘मैं रुक रहा हूँ। रात की गाड़ी से आऊँगा।’’
उनकी बात अनसुनी कर दी गई। तनाव कम करने के लिए प्रिंसिपल ने उसी विषय पर ठण्डे ढंग से कुछ कहना चाहा। कहा, ‘‘बद्री पहलवान के बारे में...।’’
वैद्यजी ने उन्हें हाथ के इशारे से चुप कर दिया। फिर सरल ढंग से बोले, ‘‘कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। मैं निर्णय कर चुका हूँ।’’
रुप्पन बाबू को उत्सुकता ने झिंझोड़ दिया, पर वे बेरुखी दिखाने के लिए कुछ दूरी पर खड़े–खड़े सड़क की आमदरफ़्त देखते रहे। वैद्यजी ने इतनी ऊँची आवाज़ में कि जिनकी दिलचस्पी नहीं है वे भी सुन लें, कहा, ‘‘मैं इतना पुरातनवादी नहीं हूँ। गाँधीजी अन्तर्जातीय विवाहों के पक्ष में थे। मैं भी हूँ। बद्री और बेला का विवाह सब प्रकार से आदर्श माना जाएगा। पर पता नहीं कि गयादीन की क्या प्रतिक्रिया है। देखेंगे।’’
कहकर उन्होंने रुप्पन बाबू की ओर देखा। रुप्पन बाबू को उनसे आँख मिलाने की हिम्मत नहीं हुई। वे बुदबुदाकर बोले, ‘‘मैं जाता हूँ।’’
प्रिंसिपल साहब भी इस प्रेमकाण्ड का इतना सीधा अन्त देखने को तैयार न थे। घबराहट में उनके मुँह से अवधी निकल पड़ी। बोले, ‘‘और महराज, हम तो पहिले हे से समझे बइठि रही। आप जइस सुधारवादी मनई...’’ कहते–कहते उन्होंने एक रिक्शेवाले को आवाज़ दी।
वैद्यजी ने कहा, ‘‘यह क्या ? आप नहीं जानते ? मैं रिक्शे पर नहीं चढ़ता। ताँगा बुलाइए।’’
प्रिंसिपल ने भूल के लिए क्षमा माँगी। वैद्यजी ने कहा, ‘‘रिक्शे का चलन इस देश के लिए कलंक है। आदमी होकर आदमी पर बैठना।’’
कुछ देर में वे दोनों ताँगे पर बैठकर स्टेशन की ओर चल दिए। रिक्शे के बहिष्कार–मात्र से रिक्शाचालकों की कलंकपूर्ण समस्या अपने–आप सुलझ गई।
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रुप्पन बाबू वैद्यजी और प्रिंसिपल के साथ शहर से लौटने पर दूसरे दिन बहुत उदास दिखे। वे जहाँ–जहाँ गए–और उस द�
�न वे अकेले कई जगहों पर गए — ने उनकी उदासी को भाँपा और उसका कारण समझने की कोशिश की। पर वे समझ नहीं सके। वास्तव में उनकी उदासी भारत की वर्तमान वैदेशिक स्थिति के सहारे समझी जा सकती है।
वे इतनी कम उम्र में ही विद्यार्थियों के नेता बन गए थे। प्रिंसिपल उनसे डरता था, वैद्यजी उनका लिहाज़ करते थे, इलाक़े के उदीयमान शोहदे उनकी चाल–ढाल, पहनावे और भाषण–शैली की नक़ल करते थे। वे सामान्यतया अपने–आपसे सन्तुष्ट रहते थे। पर शहर से लौटकर उन्होंने दूसरे दिन अपने घर में देखा कि वैद्यजी और बद्री पहलवान लड़ रहे हैं। लड़ाई को चलती हुई छोड़कर जब वे घर के बाहर आए तो वे उदास थे।
सच तो यह है कि उन्होंने बाप–बेटे का यह झगड़ा देखा ही नहीं, बल्कि उसमें शान्ति-दूत के रूप में हिस्सा भी बँटाया था। पर उन्हें शान्ति-दूत का जीवन–दर्शन नहीं मालूम था। हर शान्ति–दूत की तरह बिना बुलाये झगड़े के बीच में घुसकर ‘जाने दो’, ‘जाने दो’ कहने की और उसी लपेट में एक करारा झाँपड़ खाकर ‘कोई बात नहीं’ कहते हुए वापस आ जाने की निस्संगता उनके स्वभाव में नहीं थी। इसलिए वे उदासी के हमले से बच नहीं पाए।