Rag Darbari
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सभी मशीनें बिगड़ी पड़ी हैं। सब जगह कोई–न–कोई गड़बड़ी है। जान–पहचान के सभी लोग चोट्टे हैं। सड़कों पर सिर्फ़ कुत्ते, बिल्लियाँ और सूअर घूमते हैं। हवा सिर्फ़ धूल उड़ाने के लिए चलती है। आसमान का कोई रंग नहीं, उसका नीलापन फ़रेब है। बेवकूफ़ लोग बेवकूफ़ बनाने के लिए बेवकूफों की मदद से बेवकूफों के ख़िलाफ़ बेवकूफ़ी करते हैं। घबराने की, जल्दबाजी में आत्महत्या करने की ज़रूरत नहीं। बेईमानी और बेईमान सब ओर से सुरक्षित हैं। आज का दिन अड़तालीस घण्टे का है।
वे आम के एक घने बाग़ के पास से निकले। चैत का महीना था और फ़सल लगभग कट चुकी थी। बाग़ में खलियान डाला गया था। खाली पड़े हुए खेतों में सैकड़ों गायें और भैंसें इत्मीनान से घूम रही थीं और पड़ोस के कुछ खेतों की फ़सल को, जो अब तक कटी नहीं थी, मौज से चर रही थीं। चरवाहे बाग में कटी हुई फ़सल के ढेर के पीछे छिपकर कुछ बिना छिपे हुए पर बेतकल्लुफ़ी से बैठकर जुआ खेल रहे थे। जुआ कौड़ियों से हो रहा था और सभी लोग इस सिद्धान्त पर चल रहे थे कि इस दुनिया में आकर जितना लूट सकते हो लूट लो, क्योंकि अन्तकाल में जब प्राण छूट जाएँगे तो उसके बाद पछताना होगा। जो इस खेल में लुट चुके थे, वे प्राण छूटने का इन्तज़ार न करके पहले ही पछताने लगे थे और जुआरियों के गोल से कुछ दूर बैठकर चरस पी रहे थे। चरवाहों में सिर्फ़ दो–तीन सीनियर लोग थे, बाक़ी कच्ची उमर के लड़के थे जिन्हें सार्वजनिक सभाओं में देश के होनेवाले गाँधी और नेहरू, टैगोर और सी.वी. रमन बताया जाता है।
जुआरियों की जफड़ी जमी देखकर रुप्पन बाबू चहलक़दमी करते हुए उधर ही मुड़ गए। पर आज की मनोदशा में गो–चारण–लीलावाला यह वातावरण, जिसमें जानवर कमज़ोर किसानों की फ़सल चर रहे थे और चरवाहे जानवरों को वाजिब जगह पर पहुँचा हुआ समझकर, दत्तचित्त होकर जुआ खेल रहे थे, बहुत आकर्षक नहीं लगा। जब सभी जुआरी अपनी जगह पर उठकर उनका स्वागत करने को खड़े हो गए तो उन्होंने स्कूल मास्टरवाली अदा से कहा, ‘‘बैठो, बैठो। अपना काम करो।’’
वे थोड़ी देर खड़े–ही–खड़े जुए की प्रगति का निरीक्षण करते रहे। एक ग्यारह साल के लड़के ने उनकी ओर देखकर मुँह से चरस का धुआँ निकालना शुरू किया और इतनी देर तक निकालता रहा कि रुप्पन बाबू ने उसके खत्म होने की आशा छोड़ दी। वे आगे बढ़ गए। पीछे से जुआरी–वृन्द ने उनके पैर छूने का कोरस गाया। आशीर्वाद देने के लिए वे मुड़े भी नहीं, आगे बढ़ते गए। कुछ दूर जाकर वे चिल्लाए, ‘‘अरे हरामियो, यह फ़सल क्यों चराए डाल रहे हो ? किसके जानवर हैं ये ?’’
‘‘हमारे नहीं हैं।’’
‘‘हमारे नहीं हैं।’’
‘‘हमारे भी नहीं हैं।’’
‘‘हमारे तो उधर हैं–वो । ’’
‘‘पता नहीं किसके हैं।’’
फ़सल चरते हुए जानवरों के बारे में इन रटे–रटाये जवाबों को सुनकर रुप्पन बाबू खड़े हो गए और चीख़कर बोले, ‘‘जूते पड़ेंगे।’’
यह भविष्यवाणी सुनकर चरवाहों ने जानवर तो नहीं हटाए, पर यह निष्कर्ष निकाला कि रुप्पन भैया का दिमाग़ आज गरम है। तब तक रुप्पन ने अपनी बात दोहरायी, ‘‘सुना नहीं ? मैंने कहा कि जूते पड़ेंगे।’’ इस पर एक चरवाहा, ‘हमारे जानवर तो हैं नहीं पर हटाए देते हैं’ का राग अलापता हुआ जानवरों को हाँकने के लिए और उसी क्रम में उन्हें एक नये खेत में चरने का मौक़ा देने के लिए चला गया।
खेतों के किनारे–किनारे चलकर वे गाँव के उस सिरे पर आ गए जिसका ज़िक्र पहले ‘चमरही’ के नाम से किया जा चुका है। चमरही के बीच से वैद्यजी या उनके परिवार के किसी व्यक्ति का निकलना एक घटना के रूप में शुमार किया जाता था। एक ज़माना था कि किसी भी बाँभन–ठाकुर के निकलने पर वहाँ के लोग अपने दरवाज़ों पर उठकर खड़े हो जाते थे, हुक्कों को जल्दी से ज़मीन पर रख दिया जाता था, चिलमें फेंक दी जाती थीं, मर्द हाथ जोड़कर ‘पाँय लागी महराज’ का नारा लगाने लगते थे, औरतें बच्चों को गली से हाथ पकड़कर खींच लेती थीं और कभी–कभी घबराहट में उनकी पीठ पर घूँसे भी बरसाने लगती थीं। और महाराज चारों ओर आशीर्वाद लुटाते हुए और इस बात की पड़ताल करते हुए कि पिछले चार महीनों में किसकी लड़की पहले के मुकाबले जवान दिखने लगी और कौन लड़की �
��सुराल से वापस आ गई, त्रेतायुग की तरह वातावरण पर सवारी गाँठते हुए निकल जाते थे।
ज़मींदारी टूटने का यह नतीजा तो नहीं निकला कि चमरही गाँव के भीतर समा जाती या वहाँ ढंग के दो–चार कुएँ और मकान बन जाते, पर इतना तो हो ही गया कि किसी बाँभन के निकलने पर पहले–जैसा ‘गॉर्ड आफ़ अॉनर’ न दिया जाय। इसीलिए ‘‘हाय ! कहाँ वे दिन ! और कहाँ आज के दिन !’’ की दीनता के भाव से बचने के लिए बाँभनों ने–औरख़ास तौर से वैद्यजी ने–उधर से निकलना बन्द कर दिया था।
चमरही में होने का अहसास रुप्पन बाबू को तब हुआ जब उनके कान में दो–एक बार पड़ा, ‘‘पाँय लागी महाराज।’’
जैसाकि अपने देश में कहीं भी देखा जा सकता है, एक आदमी अपने मकान के आगे चबूतरे पर यों ही बैठा था। रुप्पन बाबू को देखकर खड़ा हो गया। वे बोले, ‘‘बैठा रह चुरइया, पुराने दिन लद गए।’’
चुरइया ने, जिसका असली नाम चुरई था और निरर्थकता ही जिसके नाम की सुन्दरता थी, कहा, ‘‘पाँव लागी, रुप्पन बाबू !’’
‘‘अब पाँव–वाँव नहीं लगा जाता। सीधी स्टिक डालने का वक्त आ गया है।’’
एक लड़का–धूल, काजल, लार, कीचड़ और थूक का बण्डल–के सामने खड़ा था। उसने उसे ठेलकर राहुल को भगवान गौतम बुद्ध की शरण में भेजा जा रहा हो–‘‘जा रे, रुप्पन भैया के पाँव छू ले।’’
रुप्पन बाबू ने उसे आशीर्वाद दिया। पूछा, ‘‘क्या नाम है इस लौंडे का ?’’
‘‘चन्दपकास।’’
यानी चन्द्रप्रकाश। रुप्पन बाबू मुस्कराए। बोले, ‘‘चन्दपकास वल्द चुरई चमार। कहीं से बड़ा ज़ोरदार नाम उड़ाया है।’’
वे चलते रहे। चुरइया ने कहा, ‘‘आज इधर कैसे भूल पड़े रुप्पन बाबू ?’’
‘‘क्या इधर से निकलना मना है ?’’
‘‘पंचायत का चुनाव तो हो गया। अब कौन–सा चुनाव होना है भैया ?’’
रुप्पन बाबू कुछ सेकण्ड तक चुरइया की हिम्मत देखकर अचकचाए–से खड़े रहे। उसके बाद दिन में पहली बार हँसे, ‘‘स्साले ! गँजहापन झाड़ रहे हो।’’
वे एक गली से निकले। उसकी विशेषता यह थी कि किसी बहुधन्धी योजना के रूप में न बनवाये जाने पर भी वह अपने–आप हमारी बहुधन्धी योजनाओं का अंग हो गई थी। वह गली थी, साथ ही नाबदान का पानी हज़ारों धाराओं से बहानेवाली नाली थी, नाली में बहनेवाली गन्दगी को सड़ाकर खाद का रूप देनेवाला डिपो थी, इस सबके साथ आसपास गाँव–सभा का लैम्प न होने के कारण वह अँधेरे में प्रेमातुर जोड़ों के लिए सामुदायिक मिलन–केन्द्र का काम देती थी। संक्षेप में, महज़ होने–भर से, ग्राम–सुधार की वह एक अच्छी–खासी योजना थी।
रुप्पन बाबू बिना नाक सिकोड़े गली के दूसरे छोर पर निकल आए। उसके बाद ही एक मैदान, फिर तहसील और थाने की इमारत दिखायी देती थी। उनसे कुछ ही आगे छंगामल विद्यालय इंटर कॉलेज के छप्पर दिखायी देते थे जिन्हें वैद्यजी सिद्धान्तवश या शान्तिनिकेतन का नाम सुनकर, हटने नहीं देना चाहते थे।
गली के मोड़ पर एक आदमी एक बुढ़िया से मुर्ग़ा ख़रीद रहा था। बुढ़िया कह रही थी, ‘‘हमने पठान बाबा की कब्र पर मानता मानी थी, यह मुर्गा तो हम उन्हीं के लिए पाल रहे हैं।’’
मुर्ग़ा ख़रीदनेवाला सचमुच ही मुर्ग़े के लिए बड़ा आतुर हो रहा था और सब तरह की आफ़तों को झेलने के लिए तैयार था। उसने बुढ़िया को समझाना शुरू किया कि पठान बाबा को तो सिर्फ़ मुर्ग़े से मतलब, चाहे यह मुर्ग़ा हो, चाहे वह मुर्ग़ा। उसने यह भी समझाया कि मुर्ग़ा बेचने के दो तरीक़े हैं, एक सीधा तरीक़ा और एक लात खानेवाला तरीक़ा। उसने बुढ़िया को बड़ी भलमनसाहत से यह छूट दे दी कि जिस तरीक़े से चाहे उसी से मुर्ग़ा बेच सकती है। उसने यह भी कहा कि हम मुर्ग़ा ख़रीदेंगे ही नहीं, उसकी कुछ क़ीमत भी देंगे।
रुप्पन बाबू ने चलते–चलते उस आदमी को टोककर कहा, ‘‘कोई हाकिम आनेवाला है क्या ?’’
उस आदमी ने जवाब में किसी को दस–बीस गालियाँ सुनायीं और उसी में यह आत्मकथा भी डाल दी कि वह सवेरे से मुर्ग़ा ढूँढ़ रहा है; यह भूगोल भी डाला कि शिवपालगंज बिलकुल फटीचर जगह है। जब लोग बोलते हैं तो लगता है चारों तरफ़ मुर्ग़े-ही-मुर्ग़े हैं, पर ख़रीदने चलो तो सब दरबे में घुस जाते हैं।
रुप्पन बाबू ने इसका मतलब निकाला कि शहर से उसका हाकिम आनेव�
�ला है। चलते–चलते वे धीरे–से बोले, “मुर्ग़े का तो ठीक हो गया, पर उसका क्या होगा ?’’
‘‘किसका ?’’
रुप्पन बाबू ने एक इशारा किया, पर उस आदमी के लिए वह बिलकुल अमूर्त कला थी। वह समझने को तैयार नहीं हुआ। गरदन टेढ़ी करके उसने दोबारा पूछा, ‘‘किसका ?’’
रुप्पन बाबू बोले, “रमचन्ना की लड़की तो ससुराल चली गई। अब क्या करोगे ?’’
‘‘राम, राम, आप भी कैसी बात करते हैं, पण्डितजी !’’ उस आदमी ने रुप्पन बाबू को झिड़क दिया।
थाने के बाहर कान पर जनेऊ चढ़ाए हुए, बनियाइन और अण्डरवीयर पहने हुए तन्दुरुस्त सिपाही। पेड़ों के नीचे कुत्तों की तरह पड़े हुए चौकीदार। टूटे कुल्हड़ों, गन्दे, भिनभिनाते हुए पत्तों और धुआँ निकालनेवाली ढिबरियों से सम्पन्न मिठाई और चाय की दुकानें। चीकट लगी हुई तिपाइयाँ। सड़क पर घरघराते हुए नशेबाज़ ड्राइवरों के हाथों चलनेवाले हत्याभिलाषी ट्रकों के कारवाँ। साइकिल के कैरियर पर घास–जैसे कागज़ात लादे हुए वसूली के अमीन। तहसीलदार का बदकलाम अरदली। शराब पीकर नाई की दुकान पर बिना मतलब झगड़नेवाला पं. रामधर का बेलगाम बेटा, जिसे सप्ताह में सात बार स्थानीय पोस्टमैन उससे भी ज़्यादा शराब पीकर जूतों से पीटता है। कॉलिज की तरफ़ से आते हुए, एक–दूसरे की कमर में हाथ डालकर चलते हुए, कोई कोरस–जैसा गाते विद्यार्थी।