Rag Darbari
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सड़क पर रंगनाथ और प्रिंसिपल साहब आते हुए मिल गए।
प्रिंसिपल ने कहा, ‘‘खन्ना मास्टर का नया करिश्मा देखा तुमने रुप्पन बाबू !’’
रुप्पन बाबू ने जवाब दिया, ‘‘मैं खन्ना मास्टर के ख़िलाफ़ कुछ नहीं सुनना चाहता। सुनाना हो तो जाकर पिताजी को सुनाइए।’’
प्रिंसिपल के कुछ बोलने के पहले ही उन्होंने रंगनाथ से कहा, ‘‘चलोगे दादा ? सनिचरा अपनी जीत की खुशी में भट्ठी पर लोगों को फिर से छनवा रहा है। फोकट का सिनेमा देखना हो तो चलो, उधर से ही निकला जाय।’’
प्रिंसिपल को फटकार देने के बाद रुप्पन बाबू की तबीयत हल्की हो गई थी। रंगनाथ ने कहा, ‘‘मैं घर जा रहा हूँ।’’
‘‘ठीक है, जाइए। मैं तो सिनेमा देखने जा रहा हूँ।’’
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वैद्यजी की बैठक से लगभग सौ गज की दूरी पर एक छोटा–सा मैदान था, जिसमें कुछ एक नीम के पेड़ थे, जिनके ऊपर सैकड़ों तोते टें–टें किया करते थे और जिनके नीचे सैकड़ों कुत्ते भाग–दौड़ का खेल खेलते थे। अभी कुछ दिन हुए प्राइमरी स्कूल के एक उत्साही अध्यापक ने वहाँ कुछ लड़कों को इकट्ठा करके क़वायद करना और कबड्डी खिलाना शुरू किया था और वैद्यजी का ख़याल था कि इसके पीछे राजनीति है। पर चूँकि वह अध्यापक रामाधीन भीखमखेड़वी के गुट का था, इसलिए वैद्यजी ने अपना ख़याल अपनी बैठक में प्रकट करके बात वहीं समाप्त कर दी थी। वहीं सप्ताह में एक बार स्थानीय बाज़ार लगता था जिसमें साग–सब्ज़ी बिकने आ जाती थी और कभी–कभी अचम्भे के बच्चे–जैसा गेहूँ का एक दुर्लभ बोरा भी फुटकर बिकता हुआ दीख पड़ता था।
प्रधान बन जाने के बाद सनीचर ने उस मैदान के एक कोने पर लकड़ी का एक केबिन खड़ा किया और वहाँ परचून की एक दुकान खोल दी। यह काम वह प्रधान बनने के पहले क्यों नहीं कर सका, इसके बारे में उसे कुछ नहीं कहना था।
होली के पन्द्रह दिन पहले वह दुकान खुली और उसने बद्री पहलवान की खुशामद करके उनसे उद्घाटन कराया। उद्घाटन का समारोह सादा, पर शानदार था। छोटे पहलवान अपने दो–एक साथियों के साथ दुकान खुलने के समय मौक़े पर जाकर लकड़ी की एक टूटी–फूटी बेंच पर बैठ गए। छोटे ने दुकान से गुड़ का एक ढेला उठा लिया और अपने साथियों में उसे बाँटकर खाना शुरू कर दिया। बद्री पहलवान चुपचाप जनता के आने का इन्तज़ार करते रहे। जब जनता के नाम पर दस–पाँच निकम्मे लोग वहाँ टहलते–टहलते आ गए तो बद्री पहलवान ने एक संक्षिप्त, पर सारगर्भित भाषण दिया कि सनीचर का अब दिन–रात निठल्ले बैठे रहना ठीक बात नहीं है। दुकान खुल गई है। ये सीधी राह चलेंगे तो कुछ दिनों में आदमी हो जाएँगे।
सनीचर ने अपने हिसाब से दुकान को काफ़ी सज़ा–बजा दिया था। लकड़ी की दीवाल के एक ओर किसी कमरकस लड्डू का विज्ञापन था, दूसरी ओर एक बड़ा भारी पोस्टर ‘अधिक अन्न उपजाओ’ वाला लगा था, जिसका ज़िक्र पहले ही किया जा चुका है। बाक़ी जगह में किसी बुढ़िया द्वारा आविष्कृत काजल का और दाद, खाँसी, दमा आदि की दवाओं और एक खास क़िस्म की बैटरी और वनस्पति घी आदि का विज्ञापन था। जिन चीज़ों का विज्ञापन लगा था, वे प्राय: दुकान पर थीं, दुकान पर ज़्यादातर वही चीज़ें थीं जिनका विज्ञापन न था।
दुकान पर पान–बीड़ी से लेकर आटा, दाल, चावल, गरम मसाला आदि वह सबकुछ था जो खुलेआम ख़रीदा और खाया जाता है। यह तो राजनीति का वह पहलू था जो मेनिफ़ेस्टो में लिखा जाता है। इसके बाद वह पहलू आता था जो पार्टी की बैठकों में गुप्त मन्त्रणा के रूप में प्रकट होता है और जो सिर्फ़ विश्वस्त सूत्रों को ही मालूम हो पाता है। उसके भीतर वे चीज़ें आती थीं जो खुलेआम ख़रीदी तो नहीं जाती थीं, पर खायी जा सकती थीं। इस कोटि के माल में बहुत–सी अंग्रेज़ी दवाइयाँ थीं जिनका उद्गम स्थानीय अस्पताल के स्टोर में था। इन्हीं में पाउडरवाले अमरीकी दूध के डिब्बे थे जिनका उद्गम स्थानीय प्राइमरी स्कूल में था। इस तरह के पदार्थों में कुछ वे पदार्थ आते थे जो सिर्फ़ छिपाकर ख़रीदे जा सकते थे और छिपकर ही इस्तेमाल हो सकते थे। इनमें गाँजा, भंग और चरस थी। अफ़ीम के बारे में सनीचर ने कोई उत्सुकता नहीं दिखायी थी, क्योंकि गाँव में अफ़ीम का छिपा कारोबार करने का एकाधिकार रामाधीन भीखमखेड़वी �
�ो ही था।
होली आते–आते सनीचर की दुकान को सरकारी मान्यता मिल गई थी, वहाँ शक्कर बिकने लगी थी, जिसके बारे में यह मशहूर था कि वह परमिट पर मिलती है, पर यह मशहूर नहीं था कि परमिट कहाँ से मिलता है। होली ही के दिन से वहाँ कच्ची शराब भी बिकने लगी थी, जिसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसमें पानी नहीं मिला होता था, जबकि सरकारी लाइसेन्सवाली दुकान की शराब में यह विशेषता नहीं थी। दुकान के इस टुकड़े का उद्घाटन जोगनाथ ने किया था। शाम को, अँधेरा घिरते ही, दुकान के आगे पड़ी बेंच पर एक छोटी–सी शीशी हाथ में उछालते हुए उसने भी एक संक्षिप्त भाषण दिया था, ‘‘वाह रे सनीचर ! बर्फस ! दुर्फुम की कर्फसर है।’’ प्रधान ने इस पर यह व्यवस्था दी थी कि जो लेना हो चुपचाप ले लो और जाकर अपने दरबे में घुस जाओ।
दुकान लकड़ी के एक बड़े तख्त पर थी और उसके अन्दर सिर्फ़ सनीचर के ही बैठने की जगह थी। फिर भी हैसियत बढ़ाने के लिए ऊपर लिख दिया गया था ‘अन्दर मत आओ’। यह इबारत स्थानीय पोस्ट आफिस के दरवाज़े पर लटके हुए साइन–बोर्ड से उधार ली गई थी। किसी लड़के ने शिवपालगंज में ऐसी अमौलिक बात हो, इसके विरोध में एक संशोधन कर दिया था। संशोधन केवल औपचारिक था। ‘अन्दर मत आओ’ के ‘मत’ को उसने ‘मूत’ बना दिया था।
इस दुकान को अपने–अपने ढंग से सभी के आशीर्वाद मिल चुके थे। बद्री, छोटे, वैद्यजी, प्रिंसिपल साहब–सभी आकर उसे आशीर्वाद दे चुके थे। प्रिंसिपल तो एक सुझाव भी दे गए थे कि कुछ जगह निकल आए तो कापी–किताबें, काग़ज़-पेंसिल भी बेचना शुरू कर दो। कोअॉपरेटिव का नया सुपरवाइज़र यह बता गया था कि दुकान की इमारत ठीक से बन जाए तो इसे कोअॉपरेटिव स्टोर समझकर चलाया जा सकेगा। सनीचर ने जवाब में कहा था, ‘‘तुम अभी से इसे क्वापरेटिव इस्टोर क्यों नहीं मान लेते ? क्वापरेटिव की लाखों रुपयों की इमारतें बनती हैं, इसी मुहल्ले में क्वापरेटिव इस्टोर की इमारत भी बनवा देना।’’
सुपरवाइज़र ने जवाब दिया, ‘‘इस्टोर की इमारत भी क्या ? चार दीवालें उठाकर ऊपर से छत डाल दो, इमारत हो गई। कहो तो कल बन जाय। पर वैद्यजी कह रहे थे कि तुम पंचायतघर बनवा रहे हो, उसी में इस्टोर भी निकल आएगा।’’
सनीचर ने प्रधान के रोब में भुनभुनाना शुरू कर दिया, ‘‘बैद महाराज का यही काम गड़बड़ है। किसी को ‘नहीं’ तो कह नहीं पाते। मुझसे यह कह रहे हैं। प्रिंसिपल साहब से कह रखा है कि पंचायतघर कॉलिज के पास बन जाएगा और ज़रूरत हुई तो दो–एक दरजे उसी में बैठ जाएँगे। बद्री पहलवान से कहा कि सनिचरा के वहीं बैठने– लेटने का इन्तज़ाम कर दो तो दिन–रात पंचायत ही का काम देखेगा। अब तुम्हीं कहो, पंचायतघर की इमारत न हुई, कातिक की कुतिया हो गई। पहले से ही हज़ार लोग उसे घेरने को बैठे हैं। बाज़ार नहीं लगा और भिखमंगे पहले ही आकर बैठ गए।’’
सुपरवाइज़र ने कहा, ‘‘तो बैदजी से ही बात कर लो या मैं ही किये लेता हूँ।’’
‘‘बात करने से क्या होगा ? उनकी हर बात हमारे लिए हुकुम है।’’
दुकान को लेकर किसी को विरोध हुआ तो रंगनाथ को। उद्घाटन के दूसरे ही दिन उसने सनीचर को दुकान पर बैठे देखकर कहा, ‘‘अच्छा नहीं लगता है।’’
‘‘देखे जाओ, रंगनाथ बाबू, कुछ दिन में अच्छा लगने लगेगा। पहले राजा–महाराजा तथा ताल्लुकेदारों का ज़माना था। अब देखना, दुकानदारी का बोलबाला होगा। इस वक़्त भी है।’’
अर्थशास्त्र की इस बहस में बिना पड़े हुए रंगनाथ ने कहा, ‘‘मैं तो शहर में जैसा चलन है, उसकी बात कर रहा था। तुम यहाँ शिवपालगंज में पड़े–पड़े अपने को बड़ा चंट समझते हो, पर हमारे वहाँ तुम्हारे भी चचा रहते हैं।
‘‘जानते हो ? वहाँ का चलन है कि जिसके हाथ में ओहदा हो वह खुद व्यापार नहीं करता। व्यापार करने के लिए भाई–भतीजों को लगाने का चलन है। वे मुँह लटकाकर व्यापार करते रहते हैं। राजनीति के चक्कर में अपना समय नहीं खराब करते। जिसके हाथ में ओहदा है, वह उनसे अलग रहकर चुपचाप अपना ओहदा सँभाले रहता है। चाहे चुंगी का चुनाव हो, चाहे असेम्बली का–हर एक के बाद चुनाव की लड़ाई से थके–थकाये भाई–भतीजे बेचारे एक कोने में बैठकर इसी तरह चुपचाप व्यापार करने लगते हैं।
‘‘तब भी इन बेचारों �
��े दुश्मन निकल आते हैं। कोई कहता है कि ओहदेवाले ने उस फ़र्म को इतना ठेका दिला दिया और अपने भतीजे का इतना फ़ायदा करा डाला। तुम अखबार पढ़ो तो देखोगे, इस तरह की बातों से काग़ज़ गँधा उठता है। तब ओहदेवाला अकड़कर कहता है कि ‘हम क्या जानें ! हमसे क्या मतलब ? किसी ने किसी के हाथ कुछ किया होगा। हम तो चुपचाप देश–सेवा कर रहे थे। तुम लोगों को किसी के ख़िलाफ़ कुछ करना हो तो जो कुछ मन में आवे, करो। हमें क्यों छेड़ते हो ?
‘‘ओहदेदारों की तरफ़ से दूसरी बातें कहनेवाले भी कई लोग निकल आते हैं। कोई पुचकारकर कहता है कि कहाँ जाएँ बेचारे भाई–भतीजे ! अगर उनका भाई–भतीजा ओहदेदार है तो क्या वे भूखों मर जाएँ ? किस कानून में लिखा है कि वे बेचारे कारोबार तक न करें ? कुछ लोग ज़रा और जड़ तक पहुँचते हैं। वे कहते हैं कि तुम इसे भ्रष्टाचार कहते हो ? इसकी जाँच करना चाहते हो ? करा लो, पर पहले यह तय कर लो कि भ्रष्टाचार कहते किसे हैं ? आओ, हम ये सब बातें भूलकर पहले भ्रष्टाचार की परिभाषा करना शुरू कर दें। तभी ये शिकायतें बन्द होंगी।’’