Rag Darbari
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सनीचर ने कहा, ‘‘बड़े साले मसखरे हैं। सरासर बेईमानी करे और पकड़ा जाय तो कहें, बताओ, बेईमानी क्या चीज़ है ? कम–से–कम गँजहों में तो ऐसी बात कोई नहीं कहेगा।’’
रंगनाथ ने कहा, ‘‘अख़बारों में जो पढ़ता हूँ, वही बता रहा हूँ, इसीलिए तुम्हें समझाता हूँ कि दुकान के झमेले में खुद न पड़ो। किसी भतीजे को बैठा दो। उसी को दुकान चलाने दो। मौक़े पर यह कहने को रहे कि हमसे क्या मतलब।’’
सनीचर कुछ देर सोचता रहा, बोला, ‘‘मेरे कोई भाई–भतीजा नहीं है। मेरे तो जो कुछ हैं, आप लोग हैं।’’
‘‘तब तुम्हें प्रधान बनने की क्या ज़रूरत पड़ गई ? अपना पेट तो ऐसे ही पाल लेते थे।’’
‘‘प्रधान कौन साला बनता है ?’’ सनीचर ने ज़ोर से रंगनाथ की बात काटी, ‘‘हम तो बैदजी को ही प्रधान मानते हैं। समझ लो, यह दुकान उन्हीं की है। बैठ मैं रहा हूँ। समझ लो, मैं उनका शिकमी हूँ।’’
आख़िरी बात बड़ी भक्ति के साथ कही गई। रंगनाथ को विश्वास हो गया कि यह सच है। यही हमारी परम्परा है। रामचन्द्र की खड़ाऊँ पूजकर भरत ने उनके नाम से चौदह साल हुकूमत चलायी थी।
उसने कहा, ‘‘शहर में शिकमी के बाद दरशिकमी का भी चलन होने लगा है। आराम से रहना चाहते हो तो कोई दरशिकमी ढूँढ़ लो।’’
‘‘चारों ओर लड़के–ही–लड़के फैले हैं। उनके मारे नाक में दम है, सोना हराम है।
‘‘यही अपने गाँव को देखो। उधर मैदान में कितने लड़के धूल में पड़े हुए चीं–चीं कर रहे हैं। इतनी धूल उड़ा रहे हैं जैसे ज़मीन को ही खत्म कर देंगे। सब निहायत गन्दे हैं। सबकी आँखें टेढ़ी–मेढ़ी हैं। ट्रेकोमा है। सभी की पसलियाँ खाल से बाहर निकल आ रही हैं। बढ़ने के नाम पर सिर्फ़ पेट–भर बढ़ा है, जिगर खराब है। सभी घिघियाकर बोलते हैं। आवाज़ सुनते ही झाँपड़ रसीद करने का मन करता है।
‘‘शहर में जाओ तो और भी गड़बड़। कहीं सैकड़ों अन्धे–ही–अन्धे घूम रहे हैं। कहीं गूँगे–ही–गूँगे। एक पुल के ऊपर सड़क के किनारे ऐसे लड़के पड़े पाए जाते हैं जिनके हाथ–पाँव–दो–दो अंगुल के हैं। न जाने कितने कोढ़ी हैं ?
‘‘आप खुद सोचें प्रधानजी ! कोई भी देश इतने लड़कों को शिक्षा दे सकता है ? उन्हें तन्दुरुस्त रख सकता है ? उन्हें आदमी बना सकता है ?
‘‘इन्हें ठीक तौर से कब तक रखा जाय ? कहाँ तक इनका भला किया जाय ? इतने दिन तो किया गया ! आप समझते क्या हैं ? कुछ कम किया गया है ? बहुत–बहुत किया गया है; पर, फिर बात वहीं–की–वहीं है–चारों ओर लड़के–ही–लड़के हैं। कोई क्या कर सकता है ?
‘‘इनके कारण कोई योजना नहीं चल पाती। हर स्कीम असफल हो जाती है, एक करोड़ की स्कीम बनाओ, तो उसे बैठाल देने के लिए अगले साल तक डेढ़ करोड़ की फ़ौज खड़ी हो जाती है।
‘‘तो क्या किया जाय ?
‘‘किया यह जाय कि सोता ही बन्द कर दो। न रहे बाँस न बजे बाँसुरी। लड़कों–बच्चों का झंझट ही मिटा डालो। लड़के पैदा भी करना हो तो जितना ज़रूरत हो उतने पैदा करो। लड़कों की रोकथाम के लिए कई तरकीबें निकली हैं...’’
एक चौबीस–पच्चीस साल का शर्मीला नौजवान लगभग एक घण्टे से सनीचर की दुकान पर बैठा हुआ भाषण–जैसा दे रहा था। चार–छ: लोग उसकी बात कौतूहल से सुन रहे थे। उनमें रुप्पन बाबू भी थे। नौजवान का भाषण बहुत ही सभ्यतापूर्ण और तर्कसंगत था, पर सुननेवाले उसे जिस ढंग से समझ रहे थे उसका सारांश ऊपर दे दिया गया है।
समझदार लोगों को यह मानने में कोई ख़ास ऐतराज़ न था कि लड़के जी का जंजाल हैं। नौजवान ने इसी बात को समझाने के लिए एक उदाहरण दिया कि घर में पाव–भर खीर बनायी जाय और सिर्फ़ पति–पत्नी हों तो उन्हें आध–आध पाव मिलेगी, एक लड़का हो तो तीनों के बीच छटाँक–छटाँक भर से ऊपर बैठेगी। पाँच लड़के हों तो बात छटाँक से तोलों में आ जाएगी। खीर का मज़ा ख़त्म...।
रुप्पन बाबू ने कहा, ‘‘भाई, मेरे तो कोई लड़का है नहीं और मैं जानता भी नहीं कि लड़का होता कैसे है। पर एक बात समझा दो। लड़के पाँच नहीं होने चाहिए, दो–तीन बहुत हैं। पर खीर पाव–भर ही क्यों बनायी जाय ? सेर–भर क्यों नहीं बनाते ?’’
नौजवान रुप्पन बाबू से बात करते हिचक रहा था। बोला, ‘‘सेर–भर खीर बनाने की हैसियत कितने लोगों की है ?’’
‘‘तो हैस�
��यत बढ़ाने की बात करो। लड़कों के पीछे डण्डा लेकर क्यों पड़े हो ?’’
सनीचर ने हाथ उठाकर प्रधान की हैसियत से कहना शुरू किया, ‘‘आदमी का बधिया करने में कोई हर्ज़ नहीं। पर मैं बताऊँ, करना क्या चाहिए। कुछ साल पहले हमारे शिवपालगंज में बन्दर–ही–बन्दर हो गए थे। सारी फसल चौपट हुई जा रही थी। बहुत बन्दर थे तादाद में, इन लड़कों से भी ज़्यादा। गँजहा लोग सवेरे से गोफना लेकर बाहर निकल जाते और खेतों पर ‘लेहो, लेहो, लेहो’ कहते हुए बन्दरों को एक घर में पहुँचा दिया करते थे। पर फ़सल नहीं बचती थी। तब हम लोगों ने पछाँह से कुछ आदमी बुलाए। वे बन्दरों को पकड़ने में उस्ताद थे। कुछ दिन में ही सब बन्दर पकड़ लिये गए और यहाँ से हटा दिए गए।
‘‘तुम भी वही करो। जितने लौंडे मिलें, पकड़–पकड़कर सबको बन्द करा दो। गोली–वोली मारने की ज़रूरत नहीं। सुनते हैं, बन्दरों को विलायत भेज दिया गया था। लड़कों को भी जहाज़ में भरकर वहीं भेज दो। वहीं जाकर रहें, खानदान चलायें।’’
रुप्पन बाबू दूर खड़े थे। बोले, ‘‘विलायत भिजवाने में कुछ खर्च भी नहीं है। सुनते हैं कि बाहर से जहाज़ों में गेहूँ लदकर आता है। वही जहाज़ जब लौटने लगें तो लड़कों को भर ले जाया करें। सारा काम फोकट में हो जाएगा।’’
शर्मीले नौजवान ने थोड़ी देर तक उन सुझावों पर विचार किया, बाद में झेंपकर बोला, ‘‘अरे नहीं ! आप लोग मज़ाक करते हैं।’’ उसने खड़े होकर बड़े आदर से जनतन्त्र को, जो इस समय सनीचर के रूप में प्रकट हुआ था, नमस्कार किया और कहा, ‘‘कल आकर फिर दर्शन करूँगा।’’
सनीचर ने प्रधानवाले लहजे में कहा, ‘‘बुरा न मानो भई, ये गँजहों के चोंचले हैं। कल आओगे तो बैदजी के दरवाज़े मीटिंग हो जाएगी। सबकी राय हुई तो नसबन्दी चल निकलेगी। हम तो बरमचारी आदमी हैं, जोरू–जाँता है नहीं। कहोगे, तो हम भी पाबन्द हो लेंगे। मौज रहेगी।’’
लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक नौजवान को विदा किया। नौजवान दुखी मन से लौटा।
दिन के लगभग तीन बजे थे और लोगों के दरवाज़े और रास्ते सुनसान थे। फ़सल कट रही थी और आबादी का काफ़ी बड़ा भाग खेतों और खलिहानों पर चला गया था। नौजवान, प्लेग से मारे हुए किसी वीरान देश में घूमनेवाले मसीहा की अदा से, सीधी निगाह और सीधी चाल, आगे बढ़ता रहा।
नौजवान झलमलाती हुई टेरेलीन की बुश्शर्ट और अफ़सरी की निशानी–पतलून पहने हुए था। गाँव का किनारा कुछ दूर रह जाने पर उसने सहसा अनुभव किया कि बुश्शर्ट ने एक कुत्ते का दिल चुरा लिया है। वह भूँकता हुआ नौजवान के टखने की ओर बढ़ रहा था। नौजवान लपककर सामने के मकान की ओर भागा और चबूतरे पर, टीन के नीचे खड़ा हो गया। उसने वहीं पास पड़ी हुई अरहर की एक छड़ी उठा ली और–अभिमन्यु जैसे टूटे हुए रथ का पहिया लेकर खड़ा हो गया हो–वह कुत्तों के चक्रव्यूह का सामना करने के लिए तैयार हो गया।
झपटते हुए कुत्ते की भूँक में न जाने कैसा जादू था कि पलक मारते ही चारों ओर कुत्ते-ही-कुत्ते नज़र आने लगे। सभी भूँक रहे थे। जो भूँक नहीं पा रहे थे, वे जोश के मारे दुम हिला रहे थे और कमर लपलपा रहे थे। बहुत–से पिल्ले अपनी बारीक आवाज़ में ‘खेंव–खेंव’ करते हुए आसमान को सिर पर उठाकर ज़मीन पर पटके दे रहे थे। कुछ पिल्ले सामने के पेड़ के नीचे पड़े हुए तिलमिला रहे थे क्योंकि उनके ज़िस्म पर बुजुर्गों के संसर्ग से एक खास क़िस्म की बीमारी फूटी हुई थी, और उनके फ़ेमिली डॉक्टर ने शायद उन्हें चलने–फिरने से मना कर दिया था। उनके रोयें झड़ गए थे और आँखें खोलने में उन्हें दिक्कत हो रही थी। इन यन्त्रणाओं के बावजूद अपनी जगह पर हिल–डुलकर और चीख़ने की चेष्टा में, मुँह फैलाकर वे इस क्रान्ति में अपना योगदान दे रहे थे।
मकान का दरवाज़ा खुला और उससे गयादीन बाहर आए। उन्होंने शान्तिपूर्ण ढंग से कहा, ‘‘बड़ा हल्ला मचा है।’’
इसके बाद अपने दरवाज़े पर एक शहरी आदमी को अरहर की दुबली–पतली छड़ी हिलाते देखकर उन्होंने कुत्तों को डपटा। पास के मकान से एक उत्साही लड़के ने निकलकर कुत्तों पर दौड़–दौड़कर ढेले फेंकने शुरू किये, दुश्मन के पाँव उखड़ गए। कुत्ते तितर–बितर होने लगे। उनके भौंकने की आवाज़ें छिटपुट गूँजती रह
ीं।
गयादीन ने शर्मीले नौजवान से पूछा, ‘‘तुम कौन हो भैया ?’’
इस सवाल का प्रत्येक भारतीय के पास यही एक आसान जवाब है कि वह चट से अपनी जाति का नाम बता दे। उसने कहा, ‘‘मैं अगरवाल हूँ।’’
दीवार के सहारे खड़ी की गई एक चारपाई को नीचे गिराते हुए गयादीन ने कहा, ‘‘बैठो भैया ! काम क्या करते हो ?’’
नौजवान ने चारपाई पर बैठकर मुँह का पसीना पोंछा जो गर्मी का नहीं, कुत्तों की भूँक का परिणाम था। जवाब दिया, ‘‘नौकरी में हूँ।’’