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Rag Darbari

Page 85

by Shrilal Shukla


  इस सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप देने का एक यह परिणाम निकला कि उस बँगले पर अब सिर्फ़ अपने गुट के आदमियों की ही नहीं, दूसरे विरोधी गुटों की भी सिफ़ारिशें सुनी जाती थीं और चूँकि कोअॉपरेटिव–इन्स्पेक्टर का तबादला रोकने की सिफ़ारिश इस समय एक विरोधी गुट के टोलीनायक की ओर से आयी थी और चूँकि उस टोलीनायक की शक्ति का उपयोग एक तीसरे विरोधी गुट के टोलीनायक को रगड़ने के लिए होना था इसलिए वैद्यजी चाहे कोअॉपरेटिव–इन्स्पेक्टर के तबादले के लिए आमरण अनशन ही क्यों न ठान लें, इस समय उसका तबादला होना असम्भव था।

  वैद्यजी को ये बातें किसी ने बतायी नहीं, इस तरह के बँगलों पर बहुत–सी बातें सिर्फ़ देखने और सूँघने से मालूम हो जाती हैं, इसलिए वे वहाँ पहुँचते ही यह सब समझ गए। फिर भी उन्होंने हिम्मत न हारी। उन्होंने बहुत समझाने की चेष्टा की, पर बात उलझती गई। उन्होंने कहा कि हमारी यूनियन में ग़बन–जैसा कोई ग़बन नहीं हुआ है, हुआ भी हो तो ग़बन करनेवाला लापता है और शासकीय तन्त्र के निकम्मेपन के कारण अभी तक पकड़ा नहीं गया है, उनका इस झगड़े से कोई सम्बन्ध नहीं है, यदि कोई सम्बन्ध प्रमाणित हो जाए तो वे जितना कहा जाएगा उतना रुपया यूनियन को दान के रूप में दे देंगे। किन्तु इसके पहले इन्स्पेक्टर का तबादला होना चाहिए। वे जो कुछ कहा जाएगा करने को तैयार हैं, शर्त यही है कि...।

  वैद्यजी को तब बताया गया कि हमें जनता के सामने आदर्श उपस्थित करना चाहिए। ऐसा न हुआ तो जनता का आचरण बिगड़ जाएगा। वह बिगड़ा तो पूरा देश बिगड़ेगा, वर्तमान बिगड़ेगा और भविष्य बिगड़ेगा। राम ने क्या किया था ? सीता का त्याग किया था कि नहीं ? तभी हम आज तक रामराज्य की याद करते हैं। त्याग द्वारा भोग करना चाहिए; यही हमारा आदर्श है। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’–कहा भी गया है। आज भी सभी यशस्वी नेता यही करते हैं। भोग करते हैं, फिर उसका त्याग करते हैं, फिर त्याग द्वारा भोग करते हैं। अमुक वित्त-मंत्री ने क्या किया ? त्यागपत्र दिया कि नहीं ? अमुक रेल–मंत्री ने भी यही किया और अमुक सूचना-मन्त्री ने भी यही किया। इस समय देश को, इस राज्य को, इस ज़िले को, इस कोअॉपरेटिव यूनियन को ऐसे ही त्याग की आवश्यकता है। आरोपों की खुली जाँच हो, इसके स्थान पर यह अधिक उत्तम है कि वैद्यजी जनता के सामने आदर्श उपस्थित कर दें। आदर्श की इमारत खड़ी करते ही सारे आरोप उसकी नींव के नीचे दब जाएँगे। अत: वैद्यजी को चाहिए कि वे मैनेजिंग डायरेक्टर के पद से त्यागपत्र दे दें। उनके विरुद्ध जो रिपोर्ट आई है, उसका यही जवाब है। वे चाहें तो अपना त्यागपत्र किसी स्थिति के विरोध में दें, चाहे किसी सहकर्मी को कमीना बताकर दें, चाहे किसी सिद्धान्त की रक्षा के लिए दें। यदि वे त्यागपत्र दे रहे हों तो उसका कारण ढूँढ़ने की उन्हें पूरी छूट रहेगी। पर त्यागपत्र के साथ अगर–मगर न होना चाहिए। होना चाहिए तो केवल त्यागपत्र होना चाहिए। नहीं तो कुछ न होना चाहिए। पर यदि कुछ हुआ, तो बहुत–कुछ हो जाएगा, जो कदाचित् वैद्यजी को अच्छा न लगेगा।

  अन्तिम वाक्य, लगता था, श्री जैनेन्द्रकुमार के किसी लेख से उड़ाए गए थे। पर वैद्यजी राजनीति के आदमी थे और बीसवीं सदी का हिन्दी–साहित्य जब हिन्दी के प्रोफ़ेसर तक बड़े कष्ट से पढ़ते हैं तो वैद्यजी से यह आशा करना कि उन्होंने श्री जैनेन्द्रकुमार का दार्शनिक साहित्य पढ़ा होगा, एक अनुचित बात होगी। वास्तव में वैद्यजी का किसी साहित्य से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं था। यदि ऐसा होता और यदि उन्होंने श्री जैनेन्द्रकुमार के लेख पढ़े होते तो इस शैली में कही गई बातें सुनकर वे समझ जाते कि उन्हें केवल शब्द–जाल से धमकाया जा रहा है। पर इस स्थिति में केवल यही समझे कि उनके विरुद्ध कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें ऊँचे स्तर पर लोगों को पचाने में असुविधा हो रही है।

  वैद्यजी ने निश्चय कर लिया। कहा, ‘‘मैं त्यागपत्र दे दूँगा। सम्भवत: इसे मेरी दुर्बलता समझा जाएगा। फिर भी इस निरर्थक प्रचार के विरोध में आपके सुझाव पर त्यागपत्र दे दूँगा। किन्तु प्रदेशीय फ़ेडरेशन के लिए उम्मीदवार चुनने का जब प्रश्न आएगा...।’’

  उन्हें इत्मीनान दिलाया गया कि वे उसी इत्म�
��नान से त्यागपत्र दे सकते हैं जिससे सभी महापुरुष, अवसर आने पर, जनता के आगे आदर्श उपस्थित करने के उद्देश्य से देते हैं। योग्य आदमियों की कमी है। इसलिए योग्य आदमी को किसी चीज़ की कमी नहीं रहती। वह एक ओर से छूटता है तो दूसरी ओर से पकड़ा जाता है।

  आज मित्रता की यात्रा में वैद्यजी वीर्यपुष्टि की गोली, ज्योतिषियों के विषय में सूचना–प्रसारण और बाबाओं के साथ मध्यस्थता–इन तीनों कार्यक्रमों के अलावा एक चौथी बात भी करते चल रहे थे। अत: इस बँगले से बाहर आने के पहले उन्होंने यहाँ भी यह बात छेड़ दी, ‘‘आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र का विवाह अन्तर्जातीय रूप से करने की सोच रहा हूँ। अभी बात पक्की नहीं हुई है, पर आशा है कि निमन्त्रण-पत्र शीघ्र ही सेवा में प्रेषित करूँगा। आपकी उपस्थिति प्रार्थनीय होगी। हो सकता है, व्यक्तिगत रूप से निवेदन करने के लिए उस समय न आ सकूँ। अत: अभी से कहे जा रहा हूँ। ऐसे आदर्श विवाहों में आप लोगों का सहयोग एवं आशीर्वाद मिलना अत्यन्त आवश्यक है। आपको यह भी जानकर प्रसन्नता होगी कि...।’’

  उन्हें यह जानकर प्रसन्नता हुई। वे अवश्य उपस्थित होंगे।

  ‘‘ग्रामीण वातावरण में उसका विरोध भी हो रहा है। किन्तु...।’’

  जो भी कहा जाता, उसी को सुनकर उन्हें प्रसन्नता होनी थी। हुई। बार–बार हुई।

  कोअॉपरेटिव यूनियन का सालाना जलसा बड़ा ही सफल रहा, क्योंकि मिठाई इस साल शहर से मँगायी गई थी। यूनियन की इमारत में झण्डियाँ लगायी गईं और फूलमालाओं के ढेर लग गए। जिस हाकिम ने कुछ दिन पहले कोअॉपरेटिव फ़ार्म का उद्‌घाटन किया था, उसी को इस जलसे में हिस्सा लेने के लिए बुलाया गया। पब्लिक में भाषण देने और माला पहनने का खून उसके मुँह में बहुत पहले लग चुका था। इन बातों की गन्ध पाते ही वह तड़ाक् से पतलून पहनकर और एक व्यापारी की मोटर माँगकर ‘पों’–‘पों’ करता हुआ जलसे में पहुँच गया।

  यूनियन की सालाना रिपोर्ट बिना पढ़े ही पढ़ी हुई मान ली गई। कारोबार में फ़ायदा हुआ था और मेम्बरों को उसका हिस्सा मिलना था। वह उन्हें बिना दिए ही मिल गया। बहुत–कुछ तो बिना हुए ही हो गया। अन्त में जिस चीज़ का होना ज़रूरी था, वह होने लगी; भाषण शुरू हो गए।

  भाषण की असलियत दिए जाने में है, लिये जाने में नहीं। इसलिए लोग भाषण देते रहे और लोग आपस में दूसरी समस्याएँ सुलझाते रहे। उदाहरण के लिए, शहर से आए हुए हाकिम ने कहा कि वैद्यजी कोअॉपरेटिव की प्रतिमा हैं, तो लोग बजाय प्रतिमा का अर्थ पूछने के आपस में यह कहने लगे कि बद्री पहलवान गयादीन की बिटिया से फँस गए हैं। फिर हाकिम ने कहा कि जब तक गाँव–गाँव में इस तरह की प्रतिमाएँ नहीं पैदा होतीं कोअॉपरेटिव आन्दोलन का बढ़ना मुश्किल है। इस पर भी लोगों ने न तो कोअॉपरेटिव का मतलब जानना चाहा, न आन्दोलन का और सिर्फ़ इतना कहकर रुक गए कि बात दबाए नहीं दब रही है, इसलिए शादी करने जा रहे हैं। इस सब कानाफूसी के बावजूद, किसी ने कोई दुखदायी बात खुलकर नहीं कही क्योंकि अब भी चक्रवर्ती राज्य अगर कहीं था तो यूनियन में था और किसी का था तो वैद्यजी का था।

  फिर भी–रामराज्य तक में दुखदायी बात कहने के लिए एक धोबी निकल आया था। यहाँ भी एक आदमी ने खड़े होकर बड़े जोश से कहा कि मैं भाषण दूँगा।

  उसके पास बैठे हुए लोग उसकी धोती पकड़कर खींचने लगे ताकि वह धोती के लालच में नीचे खिंचा चला आए। पर वह आदमी रामाधीन भीखमखेड़वी के गुट का था और हर बात हिदायत के अनुसार करने को तैयार होकर आया था। इसलिए उसने खिंचती हुई धोती की परवाह नहीं की, बल्कि उससे उसका जोश दुगुना हो गया और सब भाषणों के ऊपर चढ़कर उसने ज़ोर से भाषण दिया कि मैं भी भाषण दूँगा।

  ज़ोर से बोलने का वही नतीजा हुआ जो प्राय: होता है। विपक्ष धीरे–धीरे बोलने लगा। शहर से आए हुए हाकिम ने कहा, ‘‘दो। ज़रूर दो। मना कौन करता है !’’

  उसने अपने जोश को कायम रखने के लिए, ‘‘श्रीमान् सभापतिजी, भाइयो और बहनो’’ भी नहीं कहा। एकदम से उसने उठान भरी, ‘‘इस रिपोर्ट में–क्या नाम है उसका–ग़बन की बात नहीं कही गई है। यहाँ एक लुच्चा सुपरवाइज़र था–क्या नाम है उसका–रामसरूप नाम था। ग़बन
कर दिया साले ने–क्या नाम है उसका–शहर को दो ठेले गेहूँ लदवाकर भाग गया। शराब पीता था–क्या नाम है उसका–रण्डीबाज़ी भी करता था। वैद्यजी तक उसके मुँह–से–मुँह खोंसकर–क्या नाम है–बात करते थे। एक दिन रात को दो ठेले आए, क्या नाम है, रातों–रात लदते रहे, किसी को पता तक नहीं। क्या नाम है उसका–साला बातचीत बड़ी मीठी करता था। मुझे देखते ही दूर से, क्या नाम है, पाँयलागी करता था। वैद्यजी की–क्या नाम है उसका–कोई बुरा न माने, मैं कहूँ चाहे न कहूँ–सारी दुनिया कहती है–पटरी अच्छी बैठती थी। दो हज़ार रुपये का भभ्भक निकाल दिया साले ने–क्या नाम है उसका — कौन होगा ? कोअॉपरेटिव बड़ी अच्छी प्रतिमा है–क्या नाम है, प्रतिमा लिये–लिये घूमो। बैदजी से कोई पूछनेवाला नहीं है कि कहाँ कौन जा रहा है। मिठाई खाये जाओ–क्या नाम है–पानी पीकर घर जाओ। इससे देस का–क्या नाम है–उद्धार नहीं होगा। देस में देस का चलन चलना चाहिए–ग़बन कैसे हो गया, जाँच होनी चाहिए। मैं पढ़ा–लिखा नहीं हूँ, इसलिए कोई बुरा न माने, होली है, होली है...।’’

 

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