Rag Darbari
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उस आदमी का जोश बढ़ता जा रहा था और जब उसने ‘होली है, होली है’ का नारा बुलन्द किया तो साफ़ ज़ाहिर हो गया कि वह हाथ उठाकर कोई कविता सुनाने जा रहा है। जोश और कविता का जोड़ अगर शिवपालगंज में कभी हो जाता, तो उसके बाद आल्हा–ऊदल की लड़ाइयोंवाला वातावरण भी बन सकता था, इसलिए लोग, ‘‘हाँ, हाँ, बन्द करो, बन्द करो,’’ कहकर उसके भाषण को रोकने लगे। पर भाषण बगटुट भागा जा रहा था। लोगों के बहुत पीछा करने पर भी वह रुक नहीं रहा था। तभी वैद्यजी उठकर सामने आए और खड़े हो गए। भाषण उन्हें देखते ही अपनी जगह थोड़ा उछला–कूदा, फिर दुम हिलाकर ज़मीन सूँघने लगा।
वैद्यजी खड़े होकर थोड़ी देर मुस्कराते रहे। साबित हो गया कि ग़बन से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर उन्होंने ऋषियों की वाणी में कहना शुरू किया, ‘‘ग़बन कैसे होता है, इस पर ध्यान देने की बात है। आपके पास अपनी एक हज़ार मुद्राएँ हैं, आप उसका ग़बन नहीं कर सकते। वे मुद्राएँ आपकी हैं; अत: ग़बन आप नहीं कर सकते। आप उसका अनुचित व्यय कर सकते हैं, पर ग़बन नहीं। ग़बन वही कर सकता है, जिसकी अपनी मुद्राएँ न हों।
‘‘सहकारिता में किसी की अपनी सम्पत्ति नहीं होती। वह सामूहिक सम्पत्ति हो जाती है। कई व्यक्तियों की सम्पत्ति एक स्थान पर एकत्रित की जाती है। उसकी सुरक्षा वह करता है, जिसकी वह सम्पत्ति नहीं है। सम्पत्ति उसकी नहीं है, पर वह उसकी सुरक्षा के लिए नियुक्त होता है। यदि वह उसका अनुचित व्यय कर डाले तो वह ग़बन हो जाता है। ध्यान दें सज्जनो, अपनी सम्पत्ति का आप अनुचित व्यय करें तो वह ग़बन नहीं है, दूसरा करे तो वह ग़बन है। सहकारी सम्पत्ति किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति नहीं होती, अत: उसका अनुचित व्यय या अनुचित क्षरण किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा ही होता है जिसकी वह सम्पत्ति नहीं है। ग़बन होता है। इस प्रकार सिद्ध हुआ कि सरकारी सम्पत्ति में अनुचित व्यय नहीं होता। होता है तो सदा ग़बन ही होता है ! सहकारी सम्पत्ति की यही नियति है। इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। न सहकारी सम्पत्ति के साथ ग़बन का शब्द जुड़ते देखकर उससे घबराना चाहिए।
‘‘कहीं–कहीं ग़बन को छिपाया जाता है। दोष को छिपाना न चाहिए, नहीं तो जड़ पकड़ लेता है। हम यही सिद्धान्त मानते हैं। जिस सहकारी यूनियन में ग़बन न निकले, उसको सन्देह से देखना चाहिए। प्राय: वहाँ ग़बन आँकड़ों की आड़ में छिपाया जाता है। यहाँ कुछ भी छिपाया नहीं गया। व्यवस्था उत्तम रखी गई। ग़बन हुआ पर होकर भी नहीं हुआ, क्योंकि परिणाम उत्तम रहा। वर्ष के अन्त में यूनियन को हानि नहीं हुई, लाभ हुआ। लाभ चाहे एक पैसे का हो, चाहे एक करोड़ मुद्राओं का। लाभ लाभ है और हानि हानि है। यहाँ हानि का प्रसंग नहीं उठता। प्रसंग तो लाभ का है।
‘‘ऐसी स्थिति में ग़बन का प्रकरण निरर्थक था। उसका यहाँ प्रश्न उठाना यूनियन का अपमान करना है। यह सहकारिता का अपमान है।
‘‘परन्तु।
‘‘मेरे विरुद्ध व्यक्तिगत आक्षेप लगाए गए हैं। आक्षेप करना अनुचित है। व्यक्तिगत आक्षेप और भी अनुचित है। इस वातावरण में कोई भी व्यक्ति काम नहीं कर सकता। शिष्ट व्यक्ति तो बिलकुल ही नहीं कर सकता। मैं इस प्रकार के आक्षेपों का विरोध करता हूँ। पर ध्यान रहे, विरोध आक्षेपों से है, आक्षेप करनेवालों से नहीं। आक्षेप करनेवाले श्री रामचरन हैं। मैं उनका आदर करता हूँ। उनके लिए मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है।
‘‘पर मैं उनके आक्षेपों का विरोध करता हूँ। बलपूर्वक विरोध करता हूँ और विरोध के रूप में यहाँ के मैनेजिंग डायरेक्टर के पद से मैं त्यागपत्र देता हूँ।’’ कहकर वैद्यजी अपने स्थान पर शान्तिपूर्वक बैठ गए।
इसके बाद सबकुछ तेज़ी से होने लगा। बड़ी काँय–काँय मची, जैसे कोई मेम्बर विधानसभा से घसीटकर निकाला जा रहा हो। फिर काँय–काँय कम पड़ने लगी और शहरवाले हाकिम की गम्भीर आवाज़ सुनायी पड़ी, ‘‘वैद्यजी अपने फैसले पर अटल हैं। इसलिए मेरी सलाह है कि उनका इस्तीफ़ा मंजूर कर लिया जाए। वैसे भी आज अगले वर्ष के लिए चुनाव होना था। इस्तीफ़े का मतलब यह है कि वैद्यजी आगे के लिए मैनेजिंग डायरेक्टर नहीं होना चाहते...।’’
वैद्यजी ने बैठे–ही–बैठे कहा, �
��‘मैं सदस्य भी नहीं रहना चाहता। मेरा कर्त्तव्य पूरा हो गया। अब नवयुवकों को आना चाहिए। उन्हीं को यह आन्दोलन चलाना चाहिए।’’
शहरी हाकिम ने समझाया, ‘‘मेरा ख़याल है, आप इतना हाथ न खींचें नहीं तो यह यूनियन बैठ जाएगी। आप नवयुवकों की बात करते हैं। इस ज़माने में वे हैं कहाँ ?’’
पर वैद्यजी नहीं माने। वे इस पर अड़े रहे कि नवयुवकों को इस ज़माने में भी होना चाहिए और उन्हीं को आन्दोलन चलाना चाहिए। अन्त में शहरवाले हाकिम ने कहा, ‘‘तो नया मैनेजिंग डायरेक्टर चुन लिया जाए।’’
यह कहकर दूसरों को बोलने का मौका दिए बिना वह खुद बोलने लगा। बात उसने परम्परा से शुरू की। उसने कहा, ‘‘भाइयो, इस यूनियन की यह परम्परा रही है कि यहाँ सभी चुनाव एकमत से होते आए हैं। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि आज भी उस परम्परा के मुताबिक काम किया जाएगा। आप लोग कोई नाम...।’’
अचानक छोटे पहलवान अपनी लुंगी के साथ खड़े हो गए। टोककर बोले, ‘‘चुनाव–फुनाव में क्या रखा है साहब ? बेंट के बराबर तो यह यूनियन है, उसमें भी तुम चुनाव लड़वाने जा रहे हो।’’
इसके बाद उन्होंने भुनभुनाकर एक कहावत सुनायी जिससे आसपास बैठे हुए बहुत–से लोग हँसने लगे। हाकिम ने समझा कि छोटे पहलवान ने उसके ख़िलाफ़ कोई अश्लील बात कही है; उसने घबराकर कहा, ‘‘पहलवानजी, आप ग़लत समझे...।’’
छोटे पहलवान ने अकड़कर उसकी बात काटी, ‘‘हम तो ग़लत समझेंगे ही। तुम पतलून पहने हो, साहब ! सही बात तो तुम्हीं समझोगे।’’
हाकिम ने खुशामद–सी करते हुए कहा, ‘‘ज़रा समझ तो लीजिए पहलवानजी ! मैं तो चुनाव के ख़िलाफ़ बोल रहा था कि यहाँ चुनाव लड़ने की परम्परा नहीं है। यहाँ हर फ़ैसला एक राय से होता रहा है...। चुनाव...।’’
छोटे पहलवान ने अपना सीना फुला लिया। ललकारकर बोले, ‘‘तुम फिर वही चुनाव–चुनाव लगाए हो साहेब ! चुनाव ही की बात घेप रहे हैं। हमने कह दिया चुनाव–फुनाव नहीं होगा। उसकी ज़रूरत नहीं। वैद्यजी नहीं रहना चाहते तो न रहें। जहाँ मुर्गा न होगा तो क्या वहाँ भोर ही न होगा... !’’
शाम के चार बज रहे होंगे। हवा धूल उड़ाती हुई ज़ोर से बह रही थी। छोटे पहलवान धूल से बचने के लिए आँखें मिलमिलाते हुए अपनी जगह पर हिल–डुल रहे थे और जोश में आकर चीखने लगे थे। जोश और चीख का कोई कारण सामने नहीं था, पर उनका जोश बढ़ता जा रहा था और आवाज़ ऊँची होती जा रही थी, उसी अनुपात से जनता भी उत्साहित होती जा रही थी, हाकिम की घबराहट बढ़ रही थी। छोटे ने, जो अब किसी काल्पनिक पलटन को लड़ाई के मैदान में दौड़कर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे, आखिर में कहा, ‘‘वैद्यजी हट गए हैं। कोई फ़िकिर नहीं। उनकी जगह सटाक् से दूसरा आदमी बैठ जाता है ! कैसा चुनाव ? हुँह। चले बड़े चुनाववाले ! यह तिड़ीबाजी शहर में ही चलती है। यहाँ नहीं चलेगी ! यहाँ तो जिसे चाहो, उसी को वैद्यजी की जगह बैठा दिया जाएगा, उठो बद्री उस्ताद ! न हो तो तुम्हीं बैठ जाओ। उठो, उठो, उस्ताद, लो लपक के।’’
शोरगुल के बीच बड़े ज़ोर का नारा लगा, ‘‘बोलो, भारत माता की जय !’’ फिर वही पुराना क्रम, ‘‘बोलो महात्मा गाँधी की...’’, ‘‘पण्डित जवाहरलाल नेहरू की...’’, ‘‘बैद महाराज की...’’, ‘‘बद्री पहलवान की...’’, ‘‘इदरीस साहब की...।’’
इदरीस साहब, यानी शहर से आए हुए हाकिम के दिमाग में सन्नाटा छा गया। आँखें चकाचौंध हो गईं। जब उन्हें होश आया, उन्होंने देखा, वैद्यजी कहीं चले गए हैं, उनके विरोधी रामचरन को कोई फाटक के बाहर हाथ पकड़कर खींचे लिये जा रहा है, बद्री पहलवान माला पहने हुए मंच पर उनकी बगल में बैठे हैं, उनके चेहरे पर मैनेजिंग डायरेक्टर के पद की आभा फैली हुई है।
32
उस साल शिवपालगंज में रबी की पैदावार अच्छी हो गई।
जाड़ों में समय से पानी बरसा। नहर के बड़े साहब का, जो जनता को घास–कूड़ा और जनतन्त्र को प्लेग समझता था, तबादला हो गया। उसकी जगह एक ऐसा हाकिम आया जिसने नहर के पानी को पानी की तरह खर्च किया और सभी जगहों पर उसे पहुँचाने की कोशिश की। बसन्त में पछुआ हवा तेज़ी से नहीं चली। टिड्डियों और चूहों का प्रकोप नहीं हुआ। हरी फ़सल को लाठी के ज़ोर से अपने जानवरों द्वारा चरानेवाले दो विख्यात ग
ुण्डे थे, उनमें से एक किसी ट्रक के नीचे कुचलकर मर गया, दूसरा हवालात चला गया। कोई ऐसी फ़ौजदारी नहीं हुई जिससे गाँव के आधे लोग खेती का काम छोड़कर जेल में बन्द रहते। आपसी दुश्मनी से किसी ने खलिहान में आग नहीं लगायी।
गाँव के किनारे एक जंगल में कुछ बंजारे आकर बस गए थे। उनकी लड़कियाँ जवान और सलोनी थीं। वे कच्ची शराब बनाते और सस्ते दामों पर बेचते थे। उधर से निकलनेवाले नौजवानों को भेड़ा बनाकर वे अपनी झोंपड़ी में बाँध लिया करते थे। और जिस समय गोड़ाई करने के लिए उनका खेत पर होना लाज़मी होता, उस समय वे झोंपड़ी पर बँधे हुए मिमियाते रहते थे। इस साल पुलिस ने पहले लड़कियों पर हस्तक्षेप किया, फिर कच्ची शराब पर और आख़िर में बंजारों के पूरे रहन–सहन पर हस्तक्षेप करके उन्हें इलाके के बाहर खदेड़ दिया। इस तरह नौजवानों और खेतों के बीच, बागों में निरन्तर चलनेवाले जुए को छोड़कर और कोई बाधा नहीं रही और उन्होंने खेती में जी लगाकर मेहनत की।