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Rag Darbari

Page 91

by Shrilal Shukla


  ‘‘और इस खन्ना मास्टर के लिए तो मैं वैसे भी लीडरी नहीं करूँगा। जिनके कुछ समझ ही नहीं है, उनके लिए कहाँ तक वकालत की जाए !

  ‘‘लौंडों की दोस्ती, जी का जंजाल।’’

  रंगनाथ ने उनका व्याख्यान शान्तिपूर्वक सुन लिया था। कहा, ‘‘पर गयादीनजी, मामा को आप ही अच्छी तरह जानते हैं। आप ही उन पर कुछ असर डाल सकते हैं। आपको खन्ना की कुछ मदद तो करनी पड़ेगी।’’

  गयादीन ने सोचा : ये लोग कितने बेशर्म हैं। महीनों से इन्हें समझा रहा हूँ कि मेरे सहारे न रहो। खीझकर चले जाते हैं, फिर दौड़ते हुए इधर ही आते हैं। इजलास ने सही कहा था : इन्हें शर्म आनी चाहिए।

  उन्होंने कहा, ‘‘खन्ना मास्टर की मदद मैं तो नहीं कर पाऊँगा, पर तुम कर सकते हो। अपने मामा के ख़िलाफ़ तुम अब बोलने ही लगे हो। झिझक दूर हो गई है ! तुम बाहर के रहनेवाले भी हो। यहाँ वाले तुम्हारी असलियत जानते नहीं हैं और जैसे ये खन्ना मास्टर हैं, वैसे ही तुम हो। अब तुम्हीं लीडरी करके दिखाओ।’’

  रंगनाथ ने तैश में आकर कहा, ‘‘तो यही होगा, आप कहते क्या हैं ?’’

  ‘‘लौंडों की दोस्ती, जी का जंजाल।’’ उन्होंने कहा, पर अपने मन में ही कहकर रह गए। बिना दिलचस्पी के वे उन लोगों का तेज़ी से उठकर जाना देखते रहे। उन्हें याद आया कि शहर जाने के लिए बस का टाइम हो गया है, पन्द्रह हज़ार रुपिया बहुत बड़ी रक़म है, पर बेला के लिए उसकी कोई क़ीमत नहीं है, भैंस अभी तक वापस नहीं आयी है और अब गाँव में रहना बड़ी ज़लालत है।

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  हमारे न्याय-शास्त्र की किताबों में लिखा है कि जहाँ–जहाँ धुआँ होता है, वहाँ–वहाँ आग होती है। वहीं यह भी बढ़ा देना चाहिए कि जहाँ बस का अड्डा होता है, वहाँ गन्दगी होती है।

  शिवपालगंज के बस अड्डे की गन्दगी बड़े नियोजित ढंग की थी।

  गन्दगी–प्रसार–योजना को आगे बढ़ानेवाले कुछ प्राकृतिक साधन वहाँ पहले ही से मौजूद थे। अड्डे के पीछे एक समुद्र था, यानी कम–से–कम एक झील थी जो बरसात में समुद्र–सी दिखती थी। दरअसल यह झील भी नहीं थी, जाड़ों में वह झील थी, बाद में छोटा–सा पोखर बन जाती थी। गन्दगी की सप्लाई का वह एक नैसर्गिक साधन था। शाम–सवेरे वह जनता को खुली हवा देता था और खुली हवा के शौचालय की हैसियत से भी इस्तेमाल होता था। सुबह होते ही ‘शर्मदार के लिए सींक की आड़ काफ़ी होती है,’ इस सिद्धान्त पर वहाँ उगनेवाली घास के हर तिनके के पीछे एक–एक शर्मदार आदमी छिपा हुआ नज़र आता था, बहुत–से ऐसे भी लोग थे जो ‘भाइयो और बहनो, मेरे पास छिपाने को कुछ नहीं है’ वाली सच्चाई से बिलकुल खुले में बैठकर और सींक की आड़ भी न लेकर, अपने–आपको पेश करने लगते थे। इस मौक़े से फ़ायदा उठाने के लिए शिवपालगंज के सभी पालतू सूअर सवेरे–सवेरे उधर ही पहुँच जाते थे। वे आदमियों द्वारा पैदा की हुई गन्दगी को आत्मसात् करते, उसे इधर–उधर छितराते और वहाँ की हवा को बदबू से बोझिल बनाने की कोशिश करते। पोखर के ऊपर से उड़कर कस्बे की ओर आनेवाली हवा–जिसका कभी भवभूति ने ‘वीचीवातै:, शीकरच्छोदशीतै:’ के रूप में अनुभव किया होगा–बस के अड्डे पर बैठे हुए मुसाफ़िरों को नाक पर कपड़ा लगाए रहने के लिए मजबूर कर देती थी। गाँव–सुधार के धुरन्धर विद्वान् उधर शहर में बैठकर ‘गाँव में शौचालयों की समस्या’ पर गहन विचार कर रहे थे और वास्तव में 1937 से अब तक विचार–ही–विचार करते आ रहे थे, इधर बस के अड्डे पर बैठे हुए मुसाफ़िर नाक पर कपड़ा लपेटकर कभी जैन–धर्म स्वीकार करने को तैयार दिखते, कभी सूअरों की गुरगुराहट सुनते हुए वाराह–अवतार की कल्पना में खो जाते। वातावरण बदबू और धार्मिक सम्भावनाओं से भरा–पूरा था।

  सूअरों के झुण्ड सड़क पर निकलते समय आदमियों की नक़ल करते। वे दायें–बायें चलने का ख्याल न करके सड़क पर निकलनेवाली हर सवारी के ठीक आगे चलते हुए नज़र आते और आपसी ठेलठाल में कॉलिज के लड़कों को भी मात देते। बस के अड्डे की चहारदीवारी एक जगह पर टूट गई थी। इसका फ़ायदा उठाकर वे सड़क से सीधे बस के अड्डे में घुसते और दूसरी ओर के फाटक से निकलकर पोखर के किनारे पहुँच जाते। उनके वहाँ पहुँचते ही पिकनिक और यूथफ़ेस्टिवल का समाँ बँध जाता।

  गन्दगी–प्रसार–योजना के अन्तर्ग�
�� वहाँ पर बस का अड्डा बनाते समय इन प्राकृतिक सुविधाओं का ध्यान रखा गया होगा। वैसे, गन्दगी सप्लाई करने की दूसरी एजेन्सियाँ भी वहाँ पहले से मौजूद थीं। उनमें एक ओर एक मन्दिर था जो अपनी चीकट सीढ़ियों के कारण मक्खी–पालन का बहुत बड़ा केन्द्र बन गया था। उसके चारों ओर छितरे हुए बासी फूल, मिठाई के दोने और मिट्टी के टूटे–फूटे सकोरे चींटियों को भी आकर्षित करते थे। दूसरी ओर एक धर्मशाला थी जिसके पिछवाड़े हमेशा यह सन्देह होता था कि यहाँ पेशाब का महासागर सूख रहा है।

  गन्दगी के इन कार्यक्रमों में ठीक से ताल–मेल बैठाकर छोटी–मोटी कमियों को दूसरी तरकीबों से पूरा किया गया था। उनमें सबसे प्रमुख स्थान थूक का था जिसे हर जगह देखते रहने के कारण राष्ट्रीय चिन्ह मान लेने की तबीयत करती है। हमारी योजनाओं में जैसे काग़ज़, वैसे ही हमारी गन्दगी का महत्त्वपूर्ण तत्त्व थूक है। थूक–उत्पादन में वहाँ पान की दस–बीस दुकानें, कुछ स्थिर और कुछ गश्ती सेक्टर की सरकारी–मान्यता प्राप्त फ़ैक्टरियों की तरह काम करती थीं। थूक का उत्पादन ज़ोर पर था। थूक फैलाने के लिए चारों तरफ़ कई पात्र ज़मीन में गाड़ दिए गए थे जिनको देखते ही आदमी किसी भी दिशा में दिशा को छोड़कर–थूक देता था और इस खूबी से थूकता था कि सारा थूक पात्र के बाहर ही जाकर गिरे। नतीजा यह था कि चारों ओर चार फुट की ऊँचाई तक दीवारों पर, और कहीं फ़र्श पर, थूक की नदियाँ कुछ–कुछ उसी तरह बहती थीं जैसे सुनते हैं, कभी यहाँ घी–दूध की नदियाँ बहा करती थीं।

  फिर लुढ़कते और रिरियाते हुए भिखमंगे, जो संख्या में बहुत कम होते हुए भी अपनी लगन के कारण चारों तरफ़ एकसाथ दिखायी देते। चाय की दुकानों पर चाय की सड़ी, चुसी हुई पत्तियाँ और गन्दे पानी के नाबदान। आने और जानेवाली बसों की गर्द। मरियल कुत्तों को आरामगाहें। और गन्दगी–प्रसार–योजना को सबसे बड़ा प्रोत्साहन देनेवाली अखिल भारतीय संस्था–मिठाई और पूड़ी की दुकानें, हलवाइयों की तोंद, उनके छोकड़ों की पोशाक।

  डिप्टी डायरेक्टर ऑफ़ एजुकेशन कॉलिज के मसलों की जाँच करने आनेवाले थे। उनके आने में अब सिर्फ़ चार दिन रह गए थे। रुप्पन बाबू और रंगनाथ ने सोचा कि खन्ना मास्टर के घर पर जाकर उनकी तैयारी का हालचाल लिया जाय। जब वे मन्दिर और बस के अड्डे के बीचवाली पगडण्डी से निकले तो उन्होंने एक दृश्य देखा।

  बस के अड्डे की चहारदीवारी के दूसरी ओर एक सिर ऊपर निकला था; धड़ छिपा हुआ था। ठुड्‌डी चहारदीवारी पर टिकी थी। सिर बिना हिले–डुले, मन्दिर की ओर घूरता जा रहा था। उसके चेहरे पर एक चौड़ी पर अस्वाभाविक मुस्कान थी। दूर से दिखता था कि किसी आदमी का सिर अचानक उस वक़्त काटा गया है जब वह मुस्करा रहा था और उसे काटकर चहारदीवारी के ऊपर रख दिया गया है।

  रुप्पन बाबू ने खड़े होकर इशारे से रंगनाथ की निगाह उस ओर फेरी। वे थोड़ी देर उधर टकटकी बाँधकर देखते रहे। सहसा उन्होंने पहचान लिया कि यह लंगड़ का सिर है।

  रुप्पन बाबू ने उसे पुकारा तो उसका गला भी चहारदीवारी के ऊपर आ गया। दोनों उसके पास जाकर खड़े हो गए और चहारदीवारी के आर–पार बातें करने लगे। रुप्पन ने पूछा ‘‘बस के अड्डे पर खड़े–खड़े क्या कर रहे हो ?’’

  उसके चेहरे की मुस्कान ग़ायब हो गई थी और अब वह स्वाभाविक दिखने लगा था। उसने कहा, ‘‘यहाँ कोई क्या करता है बापू ? आने–जानेवाले ही तो यहाँ आते हैं।’’

  ‘‘वापस जा रहे हो ? इसका मतलब यह कि नक़ल मिल गई। कब मिली ?’’

  “ नक़ल तो मैंने ले ली थी, बापू, पर...।’’

  बायें हाथ की मुट्ठी से उसने अपने मत्थे पर चार–पाँच मुक्के मारे, जैसे कोई हथौड़ा चला रहा हो। वे दोनों चुपचाप खड़े रहे।

  ‘‘पिछली बार जब तुमको दुकान पर मिला था बापू, तुमने कितनी ख़ातिर की थी ? ख़रीदकर दूध पिलाया था।

  ‘‘उसी के दूसरे दिन मुझे अपने गाँव चला जाना पड़ा। ख़बर आयी थी कि बिरादरी के घर में ग़मी हो गई है। गाँव पहुँचते ही मुझे बुख़ार ने फिर दबा लिया।

  ‘‘पूरे सत्रह दिन खटिया पर पड़ा रहा। कल वापस लौटा हूँ, बापू ! तहसील में जाकर पता लगाया तो चिड़िया खेत चुग गई थी।

  ‘‘वहाँ से बोले कि तुम्हारी नक़ल कई दिन �
�हले ही तैयार हो गई थी। नोटिस–बोर्ड पर इसकी इत्तला लग गई। पर पन्द्रह दिन तक उसे कोई लेने ही नहीं आया। तब उन्होंने उसे फाड़कर फेंक दिया।

  “नक़ल बनाकर पन्द्रह दिन तक रखते हैं। कोई न ले तो फाड़ देते हैं। मुझे यह मालूम न था।’’

  कहकर उसने हँसने की कोशिश की। उन्होंने देखा, वह रो रहा था। रंगनाथ ने समझाना शुरू किया, ‘‘देखो लंगड़, तुम्हारे क़ायदा-क़ानून जानने से कुछ नहीं होता। जानने की बात सिर्फ़ एक है कि तुम जनता हो और जनता इतनी आसानी से नहीं जीतती।’’

  उसने रोना बन्द करके अपनी ठुड्‌डी चहारदीवारी पर पहले की तरह टेक दी थी और बिना पलक गिराए हुए उन दोनों को देखने लगा था।

  ‘‘हार गए हो तो कोई बात नहीं। अपने गाँव जाकर खेती करो। कुछ दिनों बाद यह घाव अपने–आप भर जाएगा।’’

 

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