Rag Darbari
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‘‘खेती कैसे करूँगा, बापू ? खेतों का ही तो मुक़दमा चल रहा है।’’
‘‘तो चोरी करो, डाका डालो,’’ रुप्पन बाबू अचानक कड़ी आवाज़ में बोले।
वह थोड़ी देर तक गुमसुम खड़ा रहा। फिर जैसे कुछ सोचकर बोला, “नक़ल की वह दरख़्वास्त फिर से न लगा दूँ ?’’
रंगनाथ ने ज़ोर से साँस छोड़ी। कहा, ‘‘लगा दो। पर इस बार एक वकील कर लो। घूस देने से चाहे बच भी जाओ, मुक़दमा लड़ोगे, तो वकील से नहीं बच पाओगे।’’
वे लोग लौटकर पगडण्डी पर आ गए। रुप्पन बाबू ने रास्ते में पड़े हुए एक कुत्ते को ठोकर मारी, पर उसने एक बार आँख खोलने के सिवा कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखायी। उन्होंने कहा, ‘‘यह लंगड़ शिवपालगंज से बाहर रहे, यही अच्छा है। यहाँ आ जाता है तो तबीयत घिस–घिस करने लगती है। आदमी को देखते ही झाँपड़ लगाने का मन करता है।’’
‘‘तो लगाते क्यों नहीं हो ?’’ रंगनाथ ने गुर्राकर पूछा और सोचा : यहाँ मैं आज पहली बार गुरार् रहा हूँ।
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वे लोग खन्ना मास्टर के मकान पर बैठे थे। मकान, अर्थात् एक पुरानी इमारत का कमरा, जिसके पीछे एक आँगन, बरामदा और कोठरी थी। बरामदे में खाना पकता था, आँगन की एक नाली में पेशाब किया जाता था, उसी के पास बैठकर नहाया जाता था। मकान में गुसलखाना और शौचालय, शिवपालगंज के पच्चानवे फ़ीसदी मकानों की तरह, नहीं था।
कमरे में एक तख़्त। उस पर एक फटा हुआ कालीन पड़ा था। उसके एक कोने पर बिना गिलाफ़ का एक तक़िया, जिसे देखने से पता चलता, यहाँ कड़वा तेल इफ़रात से मिलता है। तख़्त से मिली हुई एक आलमारी दीवाल में निकाल ली गई थी। उस पर दाढ़ी भिगोनेवाला ब्रुश रखा था, जिस पर लगा हुआ साबुन सूखकर कड़ा हो गया था। एक सेफ़्टी रेज़र भी उसी के पास पड़ा था जिस पर साबुन और बाल सूखकर चिपक गए थे। आलमारी के उसी खाने में बूटपालिश की एक डिबिया, एक अवकाशप्राप्त ब्रुश, एक गन्दा चीथड़ा और साधना नाम की फ़िल्म ऐक्ट्रेस की एक मढ़ी हुई तस्वीर मौजूद थी जिसमें वह बहुत थोड़े कपड़े पहने हुए, ‘विलायती अभिनेत्रियों के पास जो है, वह मेरे पास भी है,’ जैसी बात का ऐलान–सा करती हुई बड़े हिम्मतवर तरीक़े से खड़ी थी।
आलमारी के ऊपरी खाने में साहित्य था।
यानी, डॉक्टर ईश्वरीप्रसाद–लिखित भारतवर्ष का इतिहास, इतिहास पर ‘ग्रेजुएट’ द्वारा लिखी गई कुछ परीक्षोपयोगी कुंजियाँ, ‘जेबी जासूस’ नामक पुस्तकमाला के कुछ पुष्प, ‘कल्याण’ नामक धार्मिक पत्रिका के बहुत–बहुत मोटे विशेषांक और गुलशन नन्दा के उपन्यासों का एक पूरा सेट। खन्ना मास्टर इतिहास पढ़ाते थे और यह साहित्य पढ़ते थे।
बैठे हुए लोगों में खन्ना मास्टर, मालवीयजी, उनके गुट के दो अन्य मास्टर और रंगनाथ। इनके अलावा दो लड़के, जो पूरे इलाके में बातचीत होने के पहले ही मार–पीट कर बैठने के लिए प्रसिद्ध थे और इच्छानुसार कभी–कभी आकर कॉलिज में पढ़ लेते थे। बैठक में दो विषय विचारार्थ प्रस्तुत थे :
(1) मालवीयजी के ख़िलाफ़ छपाए गए अश्लील पर्चे और पिछले सप्ताह खन्ना मास्टर के प्रति प्रिंसिपल द्वारा किये गए दुव्र्यवहार से उत्पन्न परिस्थिति।
(2) डिप्टी डायरेक्टर ऑफ़ एजुकेशन द्वारा होनेवाली जाँच की तैयारी।
एक तीसरा विषय भी था : प्रिंसिपल की नाक भी काटी जाए या उसे सिर्फ़ जूते मारकर छोड़ दिया जाए। पर रंगनाथ की मौजूदगी के कारण इसे ऐजेण्डा में शामिल नहीं किया गया था।
बातचीत पहली मद पर हो रही थी।
आजकल लड़कों की वार्षिक परीक्षा हो रही थी। उसमें खन्ना मास्टर ने एक लड़के को नक़ल करते हुए पकड़ा। लड़के ने पकड़े जाने से इस आधार पर इनकार कर दिया कि मुझे प्रिंसिपल साहब का हमदर्द होने के कारण पकड़ा जा रहा है, जबकि खन्ना मास्टर ने अपनी पसन्द के कई लड़कों को नक़ल करने की छूट दे दी है। इस पर मालवीयजी ने मौक़े पर पहुँचकर खन्ना की ओर से कुछ बोलने की कोशिश की, पर वह लड़का पहले ही बोल पड़ा कि ए मास्टर साहब, तुम क्यों टिल्–टिल् कर रहे हो ? जो लड़के तुम्हारे साथ शहर जाकर सिनेमा देख आए हैं, उन्हें तो तुम पूरी किताब नक़ल करा देते हो और हम एक लाइन इधर–उधर से झाड़कर लिख रहे हैं तो तुम्हीं को सबसे ज़्यादा बुरा लगता है। इस पर �
��ालवीयजी तो झेंपकर चुप हो गए पर खन्ना ने लड़के को धमकाना शुरू किया। तब लड़के ने बड़ी गम्भीरता से कहा कि मैं तुम्हारी बेइज़्ज़ती नहीं करना चाहता हूँ इसलिए चुपचाप दूसरे कमरे में चले जाओ। ऐसा न करोगे तो मैं तुम्हें खिड़की के बाहर फेंक दूँगा और हाथ–पैर टूट जाएँ तो मेरी जिम्मेदारी न होगी।
खन्ना मास्टर ने जाकर प्रिंसिपल को रिपोर्ट दी। उन्होंने कहा ‘‘ये खन्ना जहाँ पहुँच जाते हैं, वहीं कोई–न–कोई मुसीबत आ जाती है।’’ उन्होंने रिपोर्ट लेने से इनकार कर दिया।
इस पर महायुद्ध का ऐलान हुआ। खन्ना के गुट के चार–पाँच मास्टर प्रिंसिपल के कमरे में पहुँच गए। वे जिन कमरों से गए थे वहाँ लड़के स्वच्छन्दतापूर्वक नक़ल करने लगे। इधर प्रिंसिपल के कमरे में गालियाँ ही हथियार हैं जिनका, उन मास्टरों ने ‘तू–तू, मैं–मैं’ शुरू कर दी। प्रिंसिपल ने उन गालियों को अपनी आवाज़ में डुबाकर खन्ना से कहा कि कॉलिज के बारह निकल जाओ और जब तक परीक्षाएँ समाप्त न हों, कॉलिज के पास मत दीख पड़ो। यहाँ दिखायी दिए तो बात मुँह से नहीं, जूतों से होगी। खन्ना मास्टर ने इसका प्रतिवाद किया। इस पर प्रिंसिपल ने अपने शब्दों को जूतों की शक्ल देकर उनसे खन्ना मास्टर को पीटना शुरू कर दिया। खन्ना ने इसका और भी कड़ा प्रतिवाद किया; पर अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में, जहाँ बम गिराये जा रहे हों, भले ही प्रतिवाद से काम चल जाय, पर जहाँ जूता चलता हो वहाँ प्रतिवाद से काम नहीं चलता। अत: खन्ना के गुट के ही एक मास्टर ने पुलिस बुला ली। पुलिस बुलाने कहीं जाना नहीं पड़ा। विद्यार्थियों की वार्षिक परीक्षा का चूँकि शान्ति और सुरक्षा से गहरा सम्बन्ध है, इसलिए पुलिस फाटक पर ही मौजूद थी। बुलाते ही आ गई। न ख़ून हो रहा था, न डाका पड़ रहा था, इसलिए पुलिस को जैसे ही याद किया गया, घटना समाप्त होने का इन्तज़ार किये बिना ही वह मौक़े पर आ गई। आकर उसने फ़ैसला दिया कि प्रिंसिपल के हुक्म के मुताबिक़ खन्ना को इसी वक़्त बाहर चले जाना चाहिए।
खन्ना मास्टर कॉलिज छोड़कर चले गए। जाते–जाते उन्होंने प्रिंसिपल की अन्तिम चेतावनी सुन ली। वे चीख़कर अवधी में कह रहे थे, ‘‘अइसी फिर देखि परिहौ तौ मारे जूतन के पटरा कइ देबै। जान्यो मास्टर साहब ! हमहूँ का जान लेव। भले मनइन का हम भले हन और गुण्डन के बीच मा महागुण्डा।’’
लड़के इस घटना से ज़्यादा प्रभावित नहीं हुए। चुपचाप इम्तहान देते रहे और नियमपूर्वक नक़ल करते रहे।
इसी घटना को खन्ना मास्टर के साथ ‘दुर्व्यवहार’ कहा गया था और इसी के बारे में यहाँ बैठक में चर्चा हो रही थी। खन्ना मास्टर रंगनाथ से कह रहे थे :
‘‘परसाल त्रिपाठीजी के साथ भी यही हुआ था। उनसे कह दिया कि बस, कल से कॉलिज मत आना। वे दूसरे दिन गए तो कॉलिज के फाटक पर बद्री पहलवान के तीन–चार चेलों ने घेर लिया। बेचारे त्रिपाठीजी इज़्ज़त बचाकर भाग आए। जब तक वे कहीं शिकायत करें तब तक उन पर इतने दिन गै़रहाज़िर रहने का चार्ज लगाकर उन्हें मुअत्तल कर दिया। बाद में वे निकाल दिए गए।
‘‘उन्होंने मुक़दमा दायर कर दिया है। वह आज भी चल रहा है। अपनी तरफ़ से उनका पैसा लगता है, प्रिंसिपल की तरफ़ से कॉलिज का पैसा लगता है। मुक़दमे से प्रिंसिपल को कोई डर नहीं है।’’
रंगनाथ बोला, ‘‘तब तो आपको कुछ जल्दी ही करना चाहिए।’’
‘‘वह कुछ क्या है, यही तो सोचना है।’’
वे सब काफ़ी देर तक सोचते रहे। दोनों लड़के गुलशन नन्दा का एक–एक उपन्यास पलटते रहे। वे जानते थे कि इस नाटक में उनका पार्ट सोचने का नहीं है।
मालवीय ने कहा, ‘‘पुलिस में रिपोर्ट लिखा दी जाय कि कॉलिज जाते वक़्त मेरा रास्ता घेरा जाता है।’’
खन्ना मास्टर हिकारत से हँसे, जैसे कह रहे हों, ऐसे दिमाग़ के बूते पार्टीबन्दी कहाँ तक चलेगी। बोले, ‘‘क्या सबूत कि मेरा रास्ता ही घेरा जाएगा। क्या पता कि वे कॉलेज में चले जाने दें और वहाँ एकदम बेइज़्ज़ती कर बैठें। रिपोर्ट तो बाद में होगी, पहले वहाँ इन्सल्ट हो जाएगी।’’
मालवीय ने बहुत ध्यान से यह वक्तव्य सुना। फिर उस पर अपनी व्याख्या दी, ‘‘तो इसका मतलब यह कि आप वहाँ जाने से डर रहे हैं।’’
खन्न�
�� मास्टर, जो अभी तक पालथी मारे बैठे थे, अचानक घुटने मोड़कर और सीना आगे तानकर–जिस्म के उतार–चढ़ाव को दिखानेवाले स्वर्गीय मैरिलिन मनरो के एक विख्यात पोज़ में–बैठ गए। उद्दंडता के साथ बोले, ‘‘जी हाँ, जी हाँ, डर रहा हूँ। आपको कोई ऐतराज़ है ?’’
मालवीय ने समझाने के ढंग से कहा, ‘‘ऐतराज़ की बात नहीं, जब तक आप वहाँ जाते नहीं और वे आपको काम करने से रोकते नहीं, तब तक शिकायत किस तरह की जा सकती है ?’’
रंगनाथ ने कहा, ‘‘खींचकर अंग्रेज़ी में बढ़िया–सी ऐप्लीकेशन लिखिए। डिप्टी डायरेक्टर जब यहाँ जाँच के लिए आएँ, उनके सामने रख दीजिए। हमारे प्रिंसिपल साहब का मुँह धुँआ हो जाएगा।’’
खन्ना मास्टर फीकी हँसी हँसे। बोले, ‘‘आप भी रंगनाथ बाबू–क्या कहूँ ! मुझे इन डिप्टी डायरेक्टर से कोई उम्मीद नहीं है। जिस किसी की दुम उठाकर देखो, मादा ही नज़र आता है।’’