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Rag Darbari

Page 93

by Shrilal Shukla


  इस पर एक मास्टर हँसने लगा। उधर लड़कों ने ‘मादा’ का ज़िक्र आते ही गुलशन नन्दा के उपन्यासों को पढ़ना बन्द कर दिया। वे कवर के ऊपर बनी औरतों की तस्वीर ध्यानपूर्वक देखने और इन लोगों की बातें दिलचस्पी से सुनने लगे। मालवीयजी बोले, ‘‘खैर, ये डिप्टी डायरेक्टर तो नये हैं। इनसे कुछ उम्मीद की जा सकती है। सुनते हैं कि बड़े सख़्त हैं। बड़े–बड़े नेताओं तक को कुर्सी नहीं देते। बेकार की बात सुनते ही उन्हें कमरे से निकालने की धमकी देते हैं।’’

  ‘‘तुम सुनते रहो मालवीयजी, मैं सब जानता हूँ,’’ खन्ना निराशापूर्वक बोले, ‘‘उन्हीं नेताओं से वे सख़्ती दिखाते हैं जो विरोधी गुट के हैं। ये बड़े घुटे हुए अफ़सर हैं; आधे नेता हैं, आधे अफ़सर। अपने मतलब के दो–चार नेताओं को पटा लिया है। रात को जाकर उनके सामने दुम हिलाते हैं, दिन को उन्हीं के बूते पर दूसरों से सख़्ती दिखाते हैं।’’

  मालवीयजी ने कहा, ‘‘जैसा भी हो, पहलेवाले डिप्टी डायरेक्टर से लाख–गुना ज़्यादा अच्छे हैं।’’

  उन्होंने रंगनाथ को बताना शुरू किया :

  ‘‘पहले के डिप्टी डायरेक्टर बड़े गऊ थे। उनकी यही शोहरत थी। हम दो–तीन मास्टर उनके पास डेपुटेशन लेकर मिलने गए और उन्हें सब बातें समझाईं। बड़े ध्यान से सुनते रहे और जब बोले तो ऐसा लगा कि इस गाँव के गयादीनजी बोल रहे हैं।

  ‘‘कहने लगे कि तुम्हारा कॉलिज तो बहुत अच्छा है जी ! तुम कहते हो कि वहाँ पर सिर्फ़ गुटबन्दी है, लड़कों की पढ़ाई ठीक से नहीं होती, हिसाब–किताब गड़बड़ है, इम्तहान में नक़ल करायी जाती है, प्रिंसिपल तुम लोगों से दुव्र्यवहार करता है। तो भइयाजी, यह भी कोई बात हुई ? यह सब तो सभी कॉलिजों में होता है। लड़कों की पढ़ाई ठीक से नहीं होती तो कोई क्या करे ? लड़के खुद नहीं पढ़ता चाहते तो उन्हें कोई कैसे पढ़ाए ? हमारे ज़माने में अच्छे खानदान के लड़के पढ़ने आते थे, ध्यानपूर्वक पढ़ते थे, अब भंगी–चमारों के लड़के पढ़ते आते हैं, तो पढ़ाई कहाँ से होगी ? तुम खुद बताओ न भइयाजी !

  ‘‘सच पूछो तो तुम्हारे कॉलिज का बड़ा नाम है जी ! बैदजी मैनेजर हैं, बड़े सात्विक आदमी हैं। गोश्त–मछली तो दूर रही, प्याज भी नहीं खाते। और देखो जी, तुम्हारा कॉलिज घाटे पर नहीं चलता, तुम लोगों को महीना–महीना तनख़्वाह मिल जाती है। वहाँ कभी ग़बन नहीं होता जी। कभी हड़ताल नहीं होती जी। कभी वहाँ इमारत में आग नहीं लगायी गई, कभी कोई चोरी नहीं हुई। कभी वहाँ किसी का खून नहीं हुआ। सब अमन से चल रहा है जी। तुम्हारा कॉलिज तो एक आदर्श कॉलिज है जी !

  ‘‘रंगनाथ बाबू, डिप्टी डायरेक्टर साहब हमको इस तरह अमन–चैन की बातें बताते रहे, मानो वे शिक्षा के अधिकारी नहीं, किसी थाने के दारोग़ा हों।

  ‘‘चलते–चलते हमसे बोले, ‘यह शिकायत–विकायतवाली बात ठीक नहीं है जी। तुम्हें कोई तक़लीफ़ हो तो सीधे बैदजी से जाकर कहो, वे सब ठीक कर देंगे जी।’

  ‘‘रंगनाथ बाबू, हमने भी सोचा कि साले तुम बड़े भारी गऊ हो तो जाकर किसी डेरी में बँध जाओ। भूसा खाओ और दूध दो। यहाँ पर क्या कर रहे हो जी ?’’

  लोग हँसने लगे। लड़के खास तौर से हँसे और फिर उपन्यास के कवर पर बनी हुई औरत की तस्वीर को देखने में तल्लीन हो गए। मालवीयजी ने अपनी बात ख़त्म की, ‘‘पर इन डिप्टी डायरेक्टर से मुझे इत्मीनान है। हमने इस बार शिकायत की तो छूटते ही बोले, ‘आप जाकर चुपचाप अपना काम करें। मैं खुद वहाँ पर आऊँगा और जाँच करूँगा’।’’

  खन्ना मास्टर ने निराशा से सिर हिलाया, ‘‘उहुँह्। मुझे इत्मीनान नहीं। यह चुनाववाला साल है। मैंने तो सुना है कि कॉलिज को वह पहले से दुगुना पैसा दिलाने जा रहा है। इस साल सबको खुली छूट है। जाँच तो परसों ही हो जाएगी पर नतीजा कुछ न निकलेगा। क्या किया जाए ?’’

  लड़के अब तक कुछ नहीं बोले थे। उनमें से एक ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला। वह शिवपालगंज की प्रसिद्ध पोशाक में था, यानी धारीदार पायजामे पर बिना बनियान के मलमल का कुरता पहने था; उसका सिर घुटा था और वह शक्ल से गुण्डा जान पड़ता था। जब वह बोला तो प्रकट हुआ कि वह देखने में जैसा लगता है, वैसा ही है भी। उसने कहा, ‘‘मास्टर साहब, जाँच–वाँच से कुछ नहीं होगा। सीधा रा�
�्ता वही है। आप हुकुम दें तो किसी दिन यहीं अँधेरे–उजेले में प्रिंसिपल साहब का भरत–मिलाप करा दिया जाए।’’

  दूसरे लड़के ने इसका अर्थ समझाया, ‘‘नाक–भर काट ली जाय, जान लेने की कोई ज़रूरत नहीं।’’

  रंगनाथ की हालत खराब हो रही थी, वह कुछ दिनों से खन्ना मास्टर की विपत्तियों में दिलचस्पी लेने लगा था। उसे मास्टरों के इस गुट से हमदर्दी हो रही थी और विशेषतया इस बात पर कि बिना किसी लिखित कार्रवाई के, सिर्फ़ मारपीट के ज़ोर से, प्रिंसिपल ने उसे कॉलिज आने से रोक दिया है, उसे बड़ी नाराज़गी थी। इधर जब से वह दो–चार बार इन लोगों के साथ निकला, वैद्यजी और प्रिंसिपल साहब उन्हें देखकर मुस्कराने लगे थे। उसने भी यह कहकर उन्हें समझाना चाहा था कि मैं खन्ना इत्यादि का दृष्टिकोण समझकर सुलह कराने की कोशिश कर रहा हूँ। वैद्यजी ने इस बात को सिर्फ़ सुन लिया था, कुछ कहा नहीं था।

  लड़के जिस आत्म–विश्वास से प्रिंसिपल की नाक काटने की बात कर रहे थे और इस कार्रवाई को भरत–मिलाप का नाम दे रहे थे, उसने रंगनाथ को उखाड़ दिया। उसे रामायण की कथा याद थी और उसने सोचा कि भरत–मिलाप के बाद अगर प्रिंसिपल का राजतिलक होने की नौबत आ गई तो हो सकता है कि दो–चार दिन बाद इन लड़कों और मास्टरों के साथ वह खून के आरोप में हवालात में दिखायी दे। और स्वास्थ्य ठीक रहने के लिए शिवपालगंज की आबोहवा भले ही अच्छी हो, वहाँ की हवालात की इस मामले में ख्याति अच्छी नहीं थी।

  वह उठ खड़ा हुआ, पर उसके चलने के पहले ही बाहर किसी के पाँवों की आहट हुई और दरवाज़ा खोलकर रुप्पन बाबू अन्दर दाख़िल हुए।

  आज वे वीर–वेश में थे। धोती का खूँट कन्धे पर बाकायदे पड़ा था, रेशमी रूमाल गरदन के चारों ओर लपेटा हुआ था, बालों की एक लट मत्थे पर झूल रही थी, चेहरा तेल और पानी के तेज से दमक रहा था। ओंठ के कोनों से पान बह रहा था। आते ही उन्होंने कहा, ‘‘बैठे रहिए, बैठे रहिए आप लोग। मुझे अभी बहुत काम है। रुकूँगा नहीं।’’

  उन्होंने शेर की तरह चारों ओर निगाह डाली। पर दूसरों की निगाह में वे शेर–से नहीं दिखे। यह एक भोले–भाले, दुबले–पतले, हसीन नौजवान का चेहरा था जिसकी आँखें कुछ नम–सी हो रही थीं, ओंठ रोज़ के मुकाबले ज़्यादा मुलायम दिख रहे थे।

  रंगनाथ ने कहा, ‘‘बैठ जाओ रुप्पन, मैं भी चल ही रहा हूँ।’’

  ‘‘नहीं दादा, मुझे एक मिनट भी नहीं रुकना है। मैं तो सिर्फ़ इतना बताने आया था कि मैं आसपास के गाँवों में सब ठीक करा आया हूँ। इस कॉलिज की बाबत पूरे इलाके के लोग डटकर सच्ची बात कहेंगे। सारी जनता हमारे साथ है।’’

  वे जोश में थे। कहते गए, ‘‘पिताजी यही चाहते थे, तो यही हो ले। वह भी देख लें कि सच्चाई छिप नहीं सकती बनावट के उसूलों से।’’

  खन्ना मास्टर ने इस मुशायरे को रोका। कहा, ‘‘बैठो तो रुप्पन बाबू, बताओ क्या–क्या कर आए ?’’

  ‘‘ज़रा जल्दी–जल्दी समझने की कोशिश कीजिए,’’ रुप्पन ने कहा, ‘‘कल पूरी बात सामने आ जाएगी। यहीं शिवपालगंज में पाँच सौ आदमियों के सामने डिप्टी डायरेक्टर प्रिंसिपल पर सौ जूते लगाएगा। न लगाए, तो आप मुझ पर सौ जूते लगाइएगा।’’

  आवाज़ ऊँची करके वे बोले, ‘‘आप चैन से सोइये। कल की अब कल पर रही।’’ उन्होंने ललकारकर कहा, ‘‘चलो रंगनाथ दादा, चला जाय। मास्टर साहब को आराम करने दो।’’ बड़े उत्साह से उन्होंने एक हाथ उठाकर लड़कों को आशीर्वाद–जैसा दिया। पानीपत के मैदान में फ़ौज की एक टुकड़ी को ललकारकर जैसे दूसरी तरफ़ से हमला करने के लिए कहा जा रहा हो, वे बोले, ‘‘झाड़े रहो, पट्ठे !’’

  वे कमरे के बाहर आ गए। रंगनाथ उनके पीछे–पीछे था। दोनों चुपचाप थोड़ी देर चलते रहे। सड़क पर आकर रंगनाथ ने रुप्पन बाबू का कन्धा छुआ, रुप्पन बाबू ने चौंककर उनकी ओर देखा, फिर दूसरी ओर देखने लगे।

  रंगनाथ ने उनके कन्धे पर हाथ रखा और मुलायमियत से पूछा, ‘‘रुप्पन, तुमने शराब पी है ?’’

  रुप्पन बाबू मस्ती से चल रहे थे, पर लड़खड़ा नहीं रहे थे। दूसरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘कहो तो हाँ कर दूँ और कहो तो नहीं ?’’

  ‘‘जो सच हो वह कहो।’’

  ‘‘सच्चाई किस चिड़िया का नाम है ? किस घोंसले में रहती है ? कौन–से जंगल में पायी जाती ह
ै ?’’ रुप्पन बाबू ठहाका मारकर हँसे, ‘‘दादा, यह शिवपालगंज है। यहाँ यह बताना मुश्किल है कि क्या सच है, क्या झूठ।’’

  रंगनाथ ने घर की ओर का रास्ता बदल दिया। रुप्पन की कोहनी पकड़कर वह दूसरी ओर चला गया। वे बोले, ‘‘चलिए, यह भी ठीक है। आगे किसी पुलिया पर बैठकर हवा खायें।’’

  धीरे–धीरे वे सड़क पर वीरानगी की ओर बढ़ते रहे। थोड़ी देर बाद रुप्पन बाबू खुद ही बोले, ‘‘कभी–न–कभी तो शुरू करना ही पड़ता। शिवपालगंज में रहना हो तो इसी तरह रहा जाएगा।’’

  कुछ रुककर, बिला वजह बिगड़ते हुए, उन्होंने कहा, ‘‘यहाँ गाँधी महात्मा बनने से काम न चलेगा।’’

  वे सड़क के किनारे एक पुलिया पर बैठ गए। वे रंगनाथ से सटकर बैठे हुए थे और सिवा इसके कि उन्होंने अपना एक हाथ रंगनाथ के कन्धे पर मुहब्बत के साथ रख दिया था, उनके आचार–व्यवहार में कोई नयापन या शराब का असर नहीं था। रंगनाथ ने उनकी बात काटते हुए, बड़प्पन के साथ कहा, ‘‘तुम क्या बक रहे हो रुप्पन ? अपना रहन–सहन शिवपालगंज के बहाने बिगाड़ना कोई अच्छी बात नहीं। धरती पर सिर्फ़ एक शिवपालगंज ही नहीं है। हमारे–तुम्हारे लिए सारा मुल्क पड़ा हुआ है।’’

 

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